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सोलहवां अध्याय
एक सरीखा है, इत्यादि प्रकार से भर्त्सना करते हुए वन्दना करना ।
(२०) शेठता - शठतापूर्वक वन्दना करना या बीमार होने की वहाना बना कर सम्यक् प्रकार से वन्दना न करना ।
( २१ ) हीलना-आपको वन्दना करने से क्या होना-जाना है, इस प्रकार अक्षा करते हुए वन्दना करना ।
(२२) विपरिकुंचित - आधी वन्दना करके ही इधर-उधर की बातें करने
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लगना ।
( २३ ) दृष्टादृष्ट - अंधेरे में जब कोई देखता न हो तो यों ही खड़ा रहना और देखता हो तब वन्दना करना ।
(२४) शृंग - 'अहो कार्य' इत्यादि पाठ चोलते समय ललाट के मध्य भाग को स्पर्श न करके दाहिनी - बाई ओर स्पर्श करते हुए वन्दना करना ।
( २५ ) कर - वन्दना को राजकीय कर (टेक्स ) देने के समान मज़बूरी का कार्य समझते हुए करना ।
( २६ ) मोचन - लौकिक कर से तो छुटकारा मिल गया पर वन्दना के इस कर से मुक्ति न मिल पाई, ऐसी बुद्धि से वन्दना करना ।
(२७) लिट- श्रनाश्लिष्ट - इसकी चौभंगी होती है : - [ क ] 'अहो कार्य ' इत्यादि बोलते समय रजोहरण और शिर का दोनों हाथों से स्पर्श होना । [ख] सिर्फ रजोहरण का हाथों से स्पर्श हो शिर का नहीं । [ग] शिर का हाथों से स्पर्श हो रजोहरण का नहीं । [ ध ] न शिर का हाथों से स्पर्श हो और न रजोद्दरण का । इस चौमंगी में से प्रथम भंग शुद्ध है, शेष श्रशुद्ध हैं ।
( २८ ) न्यून - वन्दना का पाठ पूर्ण रूप से न बोलना ।
( २६ ) उत्तरचूल - वन्दना करके ' मत्थपण वंदामि' ऐसा बहुत जोर से
बोलना ।
(३०) मूक--पाठ का उच्चारण न करने हुए चन्दना करना । ( ३१ ) ढड्ढर--बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलते वन्दना करना । (३२) चुडली -- हाथ लम्बा फैला कर वन्दना करना या सय साधुओं की और हाथ घुमा कर 'सभी को वन्दना हो' इस प्रकार कहकर चन्दना करना ।
इन बत्तीस दोपों का परित्याग करके शुद्ध भाव से आन्तरिक भक्ति एवं श्रद्वाद के साथ, बाह्य शिष्टता का ध्यान रखते हुए यथायोग्य चन्दना करना चाहिए ।
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( ४ ) प्रतिक्रमण -- 'प्रतिक्रमण' के शब्दार्थ पर ध्यान दिया जाये तो उसका अर्ध है--पीछे फिरना-लौटना | तात्पर्य यह है कि प्रमाद के कारण शुभ योग से च्युत होकर अशुभ योग में चले जाने पर फिर अशुभ योग से शुभ योग में लौटना, प्रतिक्रमण कहलाता है । प्रतिक्रमण में लगे हुए मत सम्बन्धी अतिचारों का संशोधन
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