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लोलहवां अध्याय
- [ ६०१ } मूल:-अकोसेजा परे भिक्खु, न तेर्सि पडिसंजले ।
सरिसो होइ बालाएं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥४॥ रहायाः-याकोशेत्परः भिक्षु, न तस्मै प्रतिसंज्वलेत्।।
___सहशो भवति बालानां, तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत् ॥ ४॥ ... शब्दार्थः-दूसरा कोई पुरुष भिक्षु पर आक्रोश करे तो उस आक्रोश करने वाले पर भिक्षु क्रोध न करे । क्रोध करने पर वह स्वयं बाल-अज्ञानी के समान हो जाता है, अतएक भिक्षु क्रोध न करे।
भाष्यः--नाना देशों में विहार करने वाले साधु के जीवन में ऐसे भी प्रसंग उपस्थित होते हैं जब कि दूसरे लोग साधु पर क्रोध करते हैं, उस पर आक्रोश करते हैं, उसका अपमान करते हैं। ऐसा करने के अनेक कारण हो सकते हैं। धार्मिक द्वेष, स्वजन का मोह या इसी प्रकार के अन्य निमित्त मिलने पर अथवा निष्कारण ही कोई पुरुष साधु पर नाराज़ हो तो साधु को क्या करना चाहिए ? इसका समाधान यहां किया गया है।
शास्त्रकार ने कहा है--ऐसे अवसर पर साधु को उस क्रोध करने वाले पर क्रोध नहीं करना चाहिए। अगर साधु क्रोध करने वाले पर स्वयं क्रोध करने लगे तो अज्ञानी और ज्ञानी पुरुष में क्या अन्तर रह जायगा ? अन्नानी पुरुष अपने अनिष्ट के वास्तविक कारण को और क्रोध के फल को न जान कर क्रोध करता है और क्रोध करके श्राप ही अपना अनिष्ट करता है। इसी कारण क्रोध को निन्दनीय कहा गया है। अगर क्रोध का अवसर उपस्थित होने पर साधु भी क्रुद्ध हो जाय तो दोनों ही समान हो जाएंगे।
लोक में एक नीति प्रचलित है-'शठे शाठ्यं समाचरेत्' अर्थात् शठ के साथ शठता का ही व्यवहार करना चाहिए । इस नीति का धर्म शास्त्र विरोध करता है। जो लोग शठ के सामने स्वयं शठ बन जाने का समर्थन करते हैं, वे संसार को शठता से मुक्त नहीं कर सकते वरन् शठता की वृद्धि में सहायक हो सकते हैं। शठता अगर वुराई है तो उसका सामना करने के लिए बुराई को अंगीकार नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से बुराई मिटती नहीं, बढ़ती है । इसके अतिरिक्त शठता अगर दंडनीय है तो उसे दंडित करने के लिए धारण की गई शठता भी क्यों न दंडनीय समझी जाय ? और इस स्थिति में सिवा अनवस्था के और क्या होगा? ।
जो व्यक्ति जिस दोष से रहित है, उसे ही उस दोपवान् व्यक्ति को दंड देने का अधिकार उचित अधिकार माना जाता है । शठ को दंड देने का अधिकार किसे हो सकता है ? जो शठता से परे हो । जो स्वयं शठ बन जाता है । उसे दूसरे शठ फो दंड देने का अधिकार नहीं रह जाता, वरन् वह तो खयमेव दंड का पात्र बन जाता