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सोलहवां अध्याय
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भविष्य किस प्रकार का होगा, यह निमित्त देखकर बताना, वशीकरण मंत्र, मोहन मंत्र, उच्चाटन आदि की विधि बताना या सिखाना, कौतूहलजनक क्रियाएं करना, जैसे अदृश्य हो जाना, या अदृश्य हो जाने की विद्या सिखलाना, आदि इसी प्रकार का कोई भी कार्य करना सांसारिक प्रपञ्च है । साधु को इस प्रपञ्च से दूर रहना चाहिए ।
इस प्रकार के प्रपञ्च श्रात्मसाधना के घोर विरोधी हैं। जिसका चित्त इनकी ओर लगा रहेगा वह श्रात्मसाधना के कठोर पथ पर चल नहीं सकता । इतना ही नहीं, साधु को अपने उदर की पूर्ति के लिए भी इनका श्राश्रय नहीं लेना चाहिए । साधु की आजीविका सर्वथा निरवद्य बतलाई गई है । उसका विवेचन पहले किया जा चुका है । उसीके अनुसार अपना निर्वाह करना साधु का धर्म है । श्रतएव किसी भी कारण से साधु को सामुद्रिक शास्त्र, स्वप्न शास्त्र, निमित्त शास्त्र, मंत्र, तंत्र, विद्या आदि का प्रयोग करना उचित नहीं है ।
मुनि हो करके भी इनका प्रयोग करने वाले की क़्या दुर्गति होती है, इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने कहा है- 'न गच्छइ सरणं तम्मि काले' अर्थात् कर्म का उदय होने पर अथवा मृत्यु का समय उपस्थित होने पर उसके लिए कोई शरणदाता नहीं होता । वह श्रशरण, असहाय और अनवलम्व होकर दुःख का अनुभव करता है अन्त समय धर्म ही शरण होता है । कहा भी है
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धम्मो मंगलमडलं, प्रोस हमउलं च सव्वदुक्खाणं । धम्मो बलमवि विडलं, धम्मो तारां च सरणं च ॥
श्रर्थात्-धर्म ही अनुपम मंगलकारी है, धर्म ही समस्त दुःखों की अनुपम औषध है, धर्म ही अनुपम चल है और धर्म ही त्राण एवं शरण है ।
जब धर्म ही जीव को शरणभूत है तो अधर्म का सेवन करने वालों को क्या शरण हो सकता है ? श्रधर्मनिष्ठ लोग अशरण होकर दीन दशा का अनुभव करते हुए दुःखों के पात्र बनते हैं । ऐसा विचार कर प्रत्येक मोक्षाभिलाषी पुरुष को अधर्म का त्याग कर धर्म का ही श्राश्रय ग्रहण करना चाहिए ।
मूल :- पडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो ।
दिव्वं च गई गच्छति, चरिता धम्मरियं ॥ १२ ॥
छाया:- पतन्ति नरके घोरे, ये नराः पापकारिणः ।
दिव्यां च गतिं गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम् ॥ १२ ॥
शब्दार्थः- जो मनुष्य पाप करते हैं वे घोर नरक में पड़ते हैं और सदाचार रूप धर्म का आचरण करने वाले दिव्य गतियों में देवलोक में --जाते हैं ।
भाष्यः - प्रस्तुत गाधा में धर्म और अधर्म के फल का सार निचोड़ कर र दिया गया हैं | हिंसा, असत्य, आदि पापों का सेवन करने वाले पुरुष घोर वेदना