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मनोनिग्रह
साधु ले लेते हैं । उस से न तो गृहस्थ को किसी प्रकार का कष्ट होता है न साधु ही को निराहार रहना पड़ता है ।
मिक्षाचर्या तप चार प्रकार का है - ( १ ) द्रव्य से ( २ ) क्षेत्र से ( ३ ) काल मे और ( ४ ) भाव से । द्रव्य से भिक्षाचर्य के छब्बीस प्रकार के श्रभिग्रह होते हैं। यथा
( १ ) वर्त्तन में से निकाल कर दिये जाने वाले आहार को लेना 'उत्ति चर' कहलाता है ।
( २ ) वर्त्तन में वस्तु डालता हुआ दाता दें, उसे निक्खित्त चरए कहते हैं ।
( ३ ) वर्त्तन में से वस्तु निकाल कर फिर डालते हुए दे, उसे लेना उक्त्ति निति चरए है ।
( ४ ) वर्त्तन में डालकर फिर फिर निकालते हुए दे उसे लेना निक्षितउक्ति चरए है ।
(2) दूसरे को देते-देते बीच में दिये जाने वाले थाहार को लेना वहिजयाण चरण है ।
( ६ ) दूसरे से लेते-लेते मध्य में दिये जाने वाले श्राहार को लेना माहरिजमाय चरए है ।
( ७ ) अन्य को देने के लिए जा रहा हो उसमें से लेना उवणीय घरए है । (८) अन्य को दे देने के लिए ला रहा हो उसमें से लेना श्रावणी-चरए है । ( ६ ) किसी को देने के लिए जाकर लौट रहा हो उस समय लेना उवणीय-वीय चरए है ।
(१०) अन्य से लेकर वापस देने जाना हुआ दे, उसे ले लेना अवणीय-: वीय चरण है ।
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( ११ ) भरे हुए हाथ से देवे, उसे लेना
सट्टे चरण है 1
( १२ ) विना भरे ( साफ-सुथरे ) हाथों से दे और उसे लेना घसंस
चरण हैं ।
(१३) जिस वस्तु से हाथ भरे हो उसी दी जाने वाली वस्तु को लेना तज्जाए संसट्ट चरए है ।
(१४) अपरिचित कुल से अर्थात जिस कुल वाले साधु को पहचानते न हो उससे, लेना अश्रापचरए है ।
(१५) बिनायोले मौन रहकर चर्या करना (गौचरी करना) मोष चरिए है । (१६) दिखाई देने वाली वस्तु लेना सो दिठि लाभर है । ( १७ ) दिखाई न देने वाली वस्तु सेना श्रदिट्टि लाभ है ।