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पन्द्रहवां अध्याय
(१८) अमुक' वस्तु लंगे ? ' इस प्रकार धार कर वही वस्तु लेना पुट्ठः लाभए है।
(१६) बिना पछे ही दे, वही वस्तु लेना अपुट्ट लाभए है। (२०) जो निन्दा करके देवे वहीं से लेना सिक्न लाभए है। (२१) जो स्तुति करके दे, उसी के यहां से लेना अभिक्खू लाभए है ।
(२२) कष्टकर आहार लेना श्रणागलाए है। . (२३ ) गृहस्थ भोजन कर रहा हो और उसी में से देवे तो यह उवाणिहिए चर्या है।
( २४ ) परिमित लाम- अच्छा आहार लेना परिमित-पिण्डवाए है। (२५) चौकस कर लेना शुद्धषणिए है। (२६) एवं वस्तु की मर्यादा करके लेना संखदत्ती चर्या है।
ऊपर द्रव्य भिक्षा चर्या के जो रूप बतलाये गये हैं, वे अभिग्रह के प्रकार हैं। मुनि अपने अन्तराय कर्म की परीक्षा के लिए नाना प्रकार के अभिग्रह करते हैं। श्रमुक प्रकार का योग मिलने पर ही थाहार ग्रहण करना, अन्यथा नहीं, इस तरह के संकल्प को अभिग्रह कहते हैं । अभिग्रह गृहस्थों को प्रकट नहीं होने पाता । इससे बहुत वार मुनि को निराहार रहना पड़ता हैं।
(२)क्षेत्र से भिक्षाचर्या के पाठ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं:
(१) चार कोने वाले घर से बाहार मिलेगा तो ग्रहण करेंगे, अन्य नहीं, इस प्रकार का संकल्प करना 'पेटीए' भिक्षाचर्या है।
(२) यो कोने वाले घर से भिक्षा मिलेगी तो लेंगे, अन्यथा नहीं, इस प्रकार का अभिग्रह 'अद्धपेटीए' भिक्षाचर्या है।
(३) गो मूत्र के समान बांके, एक ओर के एक, मकान से और फिर दूसरी ओर के दूसरे मकान से भिक्षा लेना गोमुत्रे' भिक्षाचर्या है। .
(४) पतंग के उड़ने के समान प्रकीर्णक घरों से भिक्षा लेना 'पतंगीए' भिक्षा चर्या है।
(५) पहले नीचे के घर से फिर ऊपर के घर से लेना अन्यथा नहीं, वह 'अविभंतर संखाव' भिक्षा चर्या है।
(६) पहले ऊपर के घर से, फिर नीचे के घर से भिक्षा लेना 'वाहिरा संघा. वत्ते' भिक्षा चर्या है।
(७ ) जाते समय ही भिक्षा लेना, प्राते समय नहीं उसे गमणे भिक्षाचर्या कहते हैं।
(८) जाते समय भिक्षा न लेना, सिर्फ आते समय लेना 'भागमणे भिक्षाचर्या है।