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चन्द्रहवाँ अध्याय
[३] आचार्य की श्रासातना-पंचाचार के प्रति पालक, दीक्षा-शिक्षादाता शाचार्य उम्र में कख हो इस कारण या अन्य किसी कारण से उनकी श्रासातना करना।
[४] उपाध्याय की श्रासातना-द्वादशोग के पाठी, मन-मतान्तर के शाता उपाध्याय की निन्दा करना, सम्मान न करना ।
[५] स्थविर की आस्वातना-साठ वर्ष की उम्र वाले वय स्थविर की, बील वर्ष की दीक्षा वाले दीक्षास्थविर की एवं श्रुत धर्म के विशिष्ट ज्ञाता श्रुत स्थविर का अवर्णवाद करना।
[६] कुल-त्रासातना-एक गुरु के बहुत से शिष्य परस्पर एक दूसरे का प्रासातना करें। .
[७] गण-भालातना एक ही सम्प्रदाय के स्वाधुओं द्वारा परस्पर में एक दूसरे का अवर्णवाद करना ।
[८] संघ-त्रासातना-साधु, लाध्वी, श्रावक और श्राविका के समूह को संघ कहते हैं । उसका अवर्णवाद करना।
[ ] क्रियानिष्ठ-श्रासातना-शास्त्रविहित शुद्ध क्रिया करने वाले चारित्रनिष्ठ सत्पुरुष का अवर्णवाद करना।
[१०] संयोगी-यासातना-जिनका आहार-विहार एक है वे साधु संयोग्रह कहलाते हैं। आपस में उनमें से एक दूसरे की भासातला करना।
[११.१५] मतिज्ञानी, श्रुत ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, मनःपर्यय ज्ञानी, तथा केवल ज्ञानी के सद्भूत गुणों को लिए कर अवगुणों का आरोप करना, उनकी निन्दा करना।
पूर्वोक्त पन्द्रह की श्रासातना का त्याग करना, उनकी भक्ति करना और इनके गुणों का कीर्तन करना, इस प्रकार पन्द्रह को तीन से गुणाकार करने पर दर्शन विनय के पैंतालीस भेद होते हैं।
(३) चारित्र विनय-चारिश के पांच भेद हैं-सामायिक, दोपस्थापना, परि'हारविशुद्धि, सुक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात । इन पांचों चारित्रों का तथा चारिक का पालन करने वालों का यथोचित्त विनय करना पांच प्रकार का चारित्र विनय है। उनका स्वरूप इस प्रकार है:
[१] सामायिक चारित्र विनय-सम अर्थात् राग-द्वेप से रहित, आत्मा की प्रतिक्षण अपूर्व निर्जरा होने से विशुद्धि दोना सामायिक चारित है । इस चारित्र से गफ पुरुष का विनय करना ।
[२] छेदोपस्थापना चारित्र विनय-पूर्व चारित्रपर्याय विच्छेद होने पर जो र प्रहण किये जाते हैं उन्हें छेदोपस्थाएना चारिज कहते हैं। हरू चारित्रवालें य करना।