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... मनोनिग्रह छः माल, एक वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष पर्यन्त सम्प्रदाय से पृथक करके पूर्वोक्त दुष्कर तप कराकर नवीन दीक्षा देना पाराञ्चितक प्रायश्चित्त है।
शारीरिक शक्ति की न्यूनता होने के कारण आधुनिक समय में अन्त के दो प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते हैं। फिर भी इस ले यह स्पष्ट है कि जैन संघ में मुनियों की प्राचार परिपाटी को निर्मल बनाये रखने के लिए कितनी सावधानी रखने का श्रादेश है।
[३] बिनय तप-गुरु आदि ज्येष्ठ महापुरुषों का, वयवृद्धों का तथा गुण वृद्धों का यथोचित सत्कार-सन्मान करना चिनय तए कहलाता है । विनयतप सात प्रकार का है-[१ ज्ञान विनय । २) दर्शन विनय [३]चारित्र विनय [४ नमन विनय [५ वचन विनय [६] झाय विनय और | ७] लोक व्यवहार विनय ।
ज्ञान विनय-प्रति ज्ञानी, श्रुत जानी, अवधि जानी, मनःपर्याय जानी और केवल नानी का तथा ज्ञान के उपकरणों का विनय करना जान विनय है।
२1 दर्शनं विनय-सस्यग्दृष्टि पुरुष का यथायोग्य. विनय करना शुश्रषा दर्शन विलय है । यह पैंतालीस प्रकार की है। पैंतालीस श्रालातनाओं का संक्षिप्त स्वरूप आगे बतलाया जायेगा। .
.. [३.चारित्र विनय चारित्रनिष्ट महात्माओं का विनय करना, उनकी यथोचित सेवा-भक्ति करना चारित्र विनय है।
... . मन विनय-कर्कश, कठोर, छेदन-भेदन कारी परितापजनक, अप्रशस्त विचार का त्याग करके दयामय, वैराग्यपूर्ण प्रशस्त विचार करना मन विनय है। ::|५] वचन विनय-कठोर और दुःखप्रद वचन का प्रयोग न करके हित, मित, मधुर वचन बोलना वचन विनय है। :: [६] काय विनय-शरीर को अप्रशस्त क्रिया में प्रयुक्त न होने दे कर प्रशस्त क्रिया में प्रयुक्त करना काय विनय है। .
७] लोक व्यवहार विनय --गुरू . की प्राक्षा के प्राधीन रहना गुणाधिक स्वधर्मियों की प्राज्ञा मानना, स्वधर्मी का कार्य कर देना उपकारक का उपकार मानना, दसरे की चिन्ता दूर करने का यथोचित उपाय करना, देश-काल के अनुसार व्यव.. बार करना और विचक्षणता पूर्वक, सभी को प्रिय लगने वाली प्रवृत्ति करना यह सब लोक व्यवहार विनय है। . पैतालीस आसातना विनय इस प्रकार हैं:• . (१) अहन्त श्रासातना-अर्हन्त के स्मरण ले दुःख होता है, उपद्रव होता हैं अथवा शत्रु का नाश होता है, इस प्रकार कहना या विचार करना भईन्त श्रासातना है।
(२) धर्म की प्रासातना-जैन धर्म में स्नान का विधान नहीं है, अतएक वह बुरा है अथवा मोक्ष का कारण नहीं है, इस प्रकार कहना धर्म की प्रासातना है।