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क्षेत्र भिक्षा चर्या में क्षेत्र की अपेक्षा नाना प्रकार के अभिग्रह किये जाते हैं। . (३) काल से भिक्षा चर्या के अनेक भेद हैं। प्रथम प्रहर का लाया हुवा आहार तीसरे प्रहर में खाना । प्रथम प्रहर का लाया हुआ श्राहार प्रथम प्रहर में खाना और प्रथम प्रहर का लाया आहार दूसरे प्रहर में खाना । इसी प्रकार घड़ी श्रादि की अपेक्षा अभिग्रह करना काल से भिक्षाचर्या है।
(४) भाव-भिक्षाचर्या के भी अनेक विकल्प हैं। जैसे- अनेक भोज्य वस्तुएँ .... अलग-अलग लाना और सब को मिश्रित कर खाना, प्रिय एवं रूचिकर वस्तु का त्याग कर देना, गृद्धि रहित होकर श्राहार करना, श्रादि ।
(४। रसपरित्याग-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए, जिहवा को प्रिय स्वादु घलवर्द्धक वस्तुओं का त्याग करके नीरस भोज्य पदार्थ खाना रस परित्याग तप है। इसके चौदह भेद इस प्रकार हैं:
(१) निवितिए-दूध, दही, घृत, तेल, मिठाई, इन पांच विगय (विकृति जनक) वस्तुओं का त्याग करना।
(२) पणीयरसपरिच्याय-पौष्टिक एवं मादक द्रव्यों का तथा समस्त विगर्यो का त्याग करना।
(३) प्रायमसित्थ भोग-शोसावन में के ही दाने खाना । (४) श्ररस आहार-मसाला से रहित श्राहार लेना। (५) विरस थाहार-पुराना धान पका ( सीझा-असिझा) लेना। (६) अंत श्राहार-चना, उठ्द, श्रादि के छिलके लेना। (७) पंत साहार-ठंडा, वासी थाहार लेना। (८) लुक्स पाहार-सखा आहार लेना। (६) तुच्छ आहार-जली या अधजली निस्सल खुरचन आदि लेना।
(१०-१४) अरस, विरस, अन्त, प्रान्त और लत्र श्राहार से संयम का निर्वाह करना।
(५) कायक्लेशतप- स्वेच्छापूर्वक धर्मवृद्धि के लिए तथा कमों की विशिष्ट निर्जरा करने के लिए काय को कर देना कायलश तप कहलाता है। इसके भी अनेक भेद हैं।
मुख्य मंद इस प्रकार हैं:(! ) ठाणाठिाए-कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना। . १२)अणाय-कायोत्सर्ग के पिना दी खड़ा रहना। (३) उपाडासणिय-दोनों घुटनों के बीच सिर मुकाये कायोत्सर्ग करना । (५) पडिमाठार-साधु की बारह प्रतिमाएँ. (प्रतिघा.) धारण करना ।