________________
-
[ ५७२ ]
... मनोनिग्रह छायाः-यथा महा तहागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे।
उरिसञ्चनेन तपनेन, क्रमेण शोपणा भवेत् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:--जैसे नवीन जल के प्रागमन का मार्ग रोक देने पर और पहले के जल को उलीच देने से और सूर्य का ताप लगने पर विशाल तालाव का भी शोषण हो जाता है। . भाष्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है। आगे कहे जाने वाले विषय को सुगम बनाने के लिए यहां दृष्टान्त का प्रयोग किया है।
तालाव चाहे कितना ही विशाल क्यों न हो पर वह भी सुखाया जा सकता है। उसे सुखाने के लिए दो उपाय है-प्रथम तो यह कि उसमें जिन स्रोतों से-मागों से पानी आता हो उन्हें बन्द करके नवीन पानी का श्राना रोक दिया जाय । दूसरे, पहले के विद्यमान जल को उलीच डाला.जाय अथवा सूर्य के तीन ताप से वह सूख जाय । ऐसा करने से बड़े से बड़ा तालाब भी सूरन जाता है।
इसी प्रकार जव जीव नवीन कर्मों के आगमन के द्वार-श्रास्त्रव को बन्द कर देता है तो नवीन कर्मों का श्राना रुक जाता है। इस उपाय के पश्चात् क्या करना चाहिए, यह अगली गाथा में स्पष्ट किया गया है। मूलः-एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।
भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिजइ ॥ १० ॥ छायाः-एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिराम्रो ।
___ भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीयते ॥१०॥ शब्दार्थ:-इसी प्रकार पाप कमों का पानव रुक जाने पर संयममय जीवन व्यतीत करने वाले के करोड़ों भवों के पूर्वोपार्जित कर्म तप द्वारा खिर जाते हैं।
भाष्य:-पूर्व गाथा में दृष्टान्त का कथन करके यहां उसका दाष्ट्रान्तिक बताया गया है।
जीव तालाब के समान है । जल कर्म के समान है। जला के आगमन का मार्ग मानव के समान है। जल के आगमन की सलावट संयम के समान है। उलीचना सूर्य का ताप, तप के समान है । तालाय के जल का सूत्र जाना कमी के क्षय के समान हैं।
तात्पर्य यह है कि जैसे नवीन जल का आगमन रुक जाने पर और पूर्वसंचित जल के सूर्य की गर्मी द्वारा सृस्त्र जाने पर तालाय जल-दीन हो जाता है, इसी प्रकार नवीन कामों के प्रागमन रूप पानव का निरोध कर देने पर और तप के द्वारा पूर्वसंचित फर्मा की निर्जरा कर देने पर जीव कर्मों से सर्वथा रहित दो जाता है।
यहां दो उपायों के बताने से यह स्पष्ट है कि इनमें से एक उपाय का अब. सयन करने पर कमाया सर्वथा नाश होना संभव नहीं है । जिस तालाब में नवीन