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पन्द्रहवां अध्याय
[.५७१ ]. मूलः-पाणिवहमुसावाया-अदत्तमेहुण परिग्गहा विरो।
राई भोयणविरो, जीवो होइ अणासवो ॥ ८ ॥ . : छाया:-प्राणिवधमृषावाद-प्रदत्तमैथुन परिग्रहेभ्यो विरतः।।
रात्रिभोजनविरतः, जीवो भवति अंनास्रवः ॥८॥ शब्दार्थः-हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से विरत तथा रात्रि भोजन से विरत जीव आस्रव से रहित हो जाता है। ....... .. ... . .
भाष्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है । हिंसा श्रादि का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है और रात्रि भोजन के त्याग का भी निरूपण किया जा चुका है। .. .
जीव प्रति क्षण कर्मों को ग्रहण करता रहता है, अनादिकाल से कर्मों के ग्रहण की यह परम्परा अंविरत रूप से चली आ रही है । इसका अन्त किस प्रकार हो सकता है, यह यहां बतलाया गया है। हिंसा आदि पापों का त्याग करने वाला जीवं आस्रव अर्थात् कर्मों के आदान से बच जाता है।
शंका-शास्त्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को श्रान्नव का कारण बतलाया गया है। अतएव इनके त्याग से ही.श्रास्रव का नाश होना चाहिए। इसके बदले यहां हिंसा आदि के त्याग. से. अनास्रव अवस्था का प्रतिपादन क्यों किया गया है ?
समाधान-हिंसा आदि के त्याग में ही मिथ्यात्व आदि का त्याग गर्भित हो जाता है, अतएव दोनों में विरोध नहीं समझना चाहिए । मिथ्यात्व का त्याग हुए बिना हिंसा आदि पापों का त्याग होना संभव नहीं है, अतएव मिथ्यात्व का त्याग उनके त्याग में स्वतः सिद्ध है । हिंसा आदि अविरति रूपं ही हैं श्रतएव उनके त्याग में अविरति का त्याग भी सिद्ध है । प्रमाद और कषाय भी हिंसी रूप हैं-उनसे स्व. हिंसा और परहिसा होती है अतएव हिंसा आदि के पूर्ण त्याग में उनका त्याग भी समाविष्ट हो जाता है। जब तक योग की प्रवृत्ति है तब तक चारित्र की पूर्णता नहीं होती और चारित्र की परिपूर्णता होने पर योग का सद्भाव नहीं रहता और केवल मात्र योन से साम्परायिक पासव भी नहीं होता अतएव योग का भी यहीं यथायोग्य अन्तर्भाव फरना चाहिए । इस प्रकार दोनों कथनों में शब्द भेद के अतिरिक्त वस्त भेद नहीं है। . इस तरह हिंसा आदि पापों का त्याग करने पर जीव नवीन कर्मों को ग्रहण करना बन्द कर देता है । . . . . . मूल:-जहा महा तलागस्स, सनिरुद्धे जलागमे । . . . उस्सिंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ ६॥