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पन्द्रहवां अंध्याथ योगी जनों ने इस महामंत्र का चिन्तन करके मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त की है और ये जगत् के वन्दनीय बन गये हैं। बड़े बड़े हिंसक तिर्यञ्च भी इस मंत्र की आराधना करके स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं।
. इसी प्रकार इस महामंत्र में से रिहंत-सिद्ध' इन छह अहरों को, अथवा 'अरिहन्त' इन चार अक्षरों को अथषा '' इस अकेले अक्षर को तीन, चार तथा पांच सौ वार जपने से चार टंक के उपवास का फल मिलता है। . . .
इसी प्रकार-'चत्तारि संगत, अरिहंता मंगल, सिद्धा मंगल, साहु मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहत्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोमुत्तमा साह लोगुत्तमा, केवलिपश्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवजामि. अरिहते सरणं पवजामि, सिद्धा सरगण पवजामि, साहू सरणं पयजामि, केवनिपन्नत्तं धम्म सरणं पवलामि।' इस मंत्र का स्मरण-चिंतन करने से मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
इस तरह किसी पवित्र पद का अवलम्बन करके ध्यान करना पदस्थ ध्यान्त कहलाता है।
(३) रूपस्थ धर्मध्यान-समवसरण में विराजमान अहत भगवान का ध्यान्न करना रूपस्थ ध्यान है । मुक्ति-लक्ष्मी के सन्मुख. स्थित. निष्कर्म, चतुर्मुख, समस्त संसार को अभय देने वाले, स्वच्छ चन्द्रमा के समान तीन छनों से सुशोभित, भामएडल की शोभा से मुक्त, दिव्य दुंदुभि की ध्वनि से मुक्त अशोक वृक्ष, से सुशोभित सिंहासन पर विराजमान, अलौकिक ध्युति ले सम्पन्न, जिन पर चांवर ढोरे जारहे हैं, जिनके प्रभाव से सिंह और मृग जैले जाति-वीरोधी जीवों ने भी अपने वैर का स्याग कर दिया है, समस्त अतिशयों से विभूषित, केवल ज्ञान युक्त और समवसरण में विराजमान अईत भगवान के स्वरूप का अवलम्वन करके जो ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है।
इस ध्यान का अभ्यास करने वाला ध्याता अपने श्रात्मा को सर्वश के रूप में देखने लगता है। अर्हन्त भगवान के साथ तन्मय होकर, 'अर्हन्त भगवान मैं, ही हूं इस प्रकार की साधना कर लेने पर, ध्याता ईश्वर के साथ एक रूपता अनुभव करने लगता है।
वीतराग का ध्यान करने वाला योगी स्वयं वीतराग बनकर मुक्ति प्राप्त कर .. लेता है। इससे विपरीत रागी पुरुष का ध्यान करने वाला रागी बनता है।
(४) रूपातीत धर्मध्यान-रूपस्थ ध्यान का अभ्यास करके योगी जब अधिक अभ्यासी बन जाता है तब वह अरूपी, अमूर्त, निरंजन सिद्ध भगवान् का ध्यान करता है। इस प्रकार सिद्ध परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी ग्राह्य ग्राहक भाव से मुक्त, तन्मयता प्राप्त करता है । अनन्य भाव से ईश्वर का शरण लेने वाला ईश्वर में ही लीन हो जाता है। फिर ध्यान, ध्येय और ध्याता का भेद भाव नहीं रह जाता। च्याता स्वयं ध्येय रूप में परिणत हो जाता है। इस निर्विकल्प अवस्था में सात्मा और परमात्मा एकरूप हो जाता है।