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मनोनिग्रह
भाग पर स्थिर करनी चाहिए और मुख प्रसश्न रखना चाहिए। मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर रखकर, कमर सीधी करके ध्यान के लिए बैठना चाहिए। कहा भी है
पूर्वाशाभिमुखः साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा । प्रसन्नवदनो ध्याता, ध्यानकाले विशिष्यते ॥
ध्यान के लिए यद्यपि प्राणायाम की अनिवार्य श्रावश्यकता नहीं है, फिर भी शरीर की शुद्धि और मन की एकाग्रता में प्राणायाम का अभ्यास सहायक हो जाता है । कभी-कभी प्राणायाम से हानि भी होती है, जैसा कि कहा है-
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प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादार्त्तसम्भवः ।
तेन प्रचाव्यते नूनं ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्षितः ॥
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श्रर्थात् प्राणायाम में प्राण- श्वास को रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा के कारण आर्त्तध्यान होना संभव है और इस कारण तत्त्वज्ञानी पुरुष भी भाव - विशुद्धि से कदाचित् च्युत हो सकता है ।
तथापि वायु पर विजय प्राप्त करने से मन पर विजय प्राप्त करने में सहायता मिलती है, श्रतएव यदि कोई पुरुष विद्वान् गुरु की देखरेख में प्राणायाम का अभ्यास करे तो हानि नहीं है ।
प्राणायाम के मुख्य तीन भेद हैं- (१) पूरक (२) कुम्भक और (३) रेचक | (१) क - बाहर की वायु शरीर में खींच कर गुदा भाग पर्यन्त उदर को पूर्ण करना - भरना पूरक प्राणायाम कहलाता (२) कुम्भक - वायु को नाभिकमल में स्थिर करना कुम्भक प्राणायाम
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कहलाता 1
( ३ ) रेवक - वायु को उदर में से, ब्रह्मरंध द्वारा, या नासिका द्वारा चाहर निकाल फेंकना रेचक प्राणायाम है |
पूरक प्राणायाम से पुष्टि और रोगक्षय होता है, कुंभक प्राणायाम से हृदयकमल का शीघ्र विकास होता है, श्रान्तरिक ग्रंथियां भिद जाती हैं तथा बल और स्थिरता की प्राप्ति होती है । रेचक प्राणायाम उदर व्याधि और कफ़ का विनाश करता है ।
इस प्रकार यथायोग्य ध्यान से मन को जीतना चाहिए। जिनमें ध्यान करने की योग्यता नहीं भाई है उन्हें आध्यात्मिक शास्त्रों का स्वाध्यायरूप करके मन को शुभ व्यापार में रत करना चाहिए। स्वाध्याय भी मानसिक एकाग्रता का अत्यन्त उपयोगी साधन है ।
पूर्वोक्त उपायों से मन का सम्यक् निग्रह करने वाले महात्मा संसार में रहते हुए भी दुःख के संस्पर्श से रहित हो जाते हैं और अन्त में मुक्ति-तक्ष्मीका भाज मनते हैं ।