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लेश्या-स्वरूप निरूपण (तीरश्ची ) को छह, मनुष्यों को छह, संमूर्छिम मनुष्यों को नारकियों की भांति तीन, गर्भज मनुष्यों को छह, मनुष्य स्त्री को छह, देवों को छह, देवियों को कृष्ण, नील. कापोत और तेज यह चार, भवनवासी देवों, भवनवासिनी देवियों, वाणव्यन्तर देवा
और वाणवयन्तरी देवियों को भी चार।ज्योतिषी देव और देवियों को एक तेजोलेश्या, वैमानिक देवोंको तेज,पद्म और शुक्ल तथा वैमानिक देवियों को केवल तेज लेश्या होती है।
लेश्या वाले जीवों का अल्प वहुत्व इस प्रकार है-सब से कम जीव शुक्ल लेश्या वाले हैं, उनसे संख्यात गुने पद्मलेश्या वाले हैं और उनसे भी संख्यात गुने तेजो लेश्या वाले हैं । इनले अनन्तगुने अधिक लेश्या रहित (सिद्ध ) जीव हैं। इनसे अनन्तगुने कापोत लेश्या वाले हैं । इनसे विशेषाधिक नील लेश्या वाले हैं और इनसे भी विशेषाधिक कृष्ण लेश्या वाले जीव हैं।
___ नारकी जीवों में लेश्या की अपेक्षा अल्प बहुत्व इस प्रकार हैं-कृष्ण लेश्या वाले नारकी सब से थोड़े हैं। नील लेश्या वाले उनसे असंख्यात गुने हैं और कापोत लेश्या वाले उनसे भी असंख्यात गुने अधिक हैं।
लेश्या की अपेक्षा देवों का अल्प बहुत्व इस प्रकार है-देवों में शुक्ल लेश्या वाले सव से कम है, इनसे पद्म लेश्या वाले असंख्यातगुना अधिक हैं, इनसे कापोत लेश्या वाले असंख्यात गुना अधिक हैं, इनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक है और इनसे कृष्ण लेश्या वाले विशेषाधिक है।
देवियों में कापोत लेश्या वाली सब से थोड़ी हैं, इनसे नील लेश्या वाली विशे. पाधिक हैं इनसे कृष्ण लेश्या वाला विशेषाधिक हैं और इनसे तेजो लेश्या वाली संख्या
तगुनी हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यचों का अल्पवहुत्व, सामान्य जीवों के ही अल्परहुत्व के समान है। उसमें से लेश्या रहित जावा का पद निकाल देना चाहिए, क्योंकि तिर्यचों में लेश्या रहित कोई जीव नहीं हो सकता।
'एकेन्द्रियों में तेजी लेश्या वाले सब स कम हैं, उनसे कापोत लेश्या वाले अनंत गुने हैं ( क्योंकि सूक्ष्म पोर चादर निगोद में कापोत लेश्या होती है) उनसे नील लेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनस मा कृष्ण लेश्या वाले विरोषाधिक है।
मनुष्यों का अल्पबहुत्व तिर्यंचा क समान ही समझना चाहिए, परन्तु उसमें कापोत लेश्या वाले अनन्तगुने नहीं कहना चाहिए, क्योंकि मनुष्य अनन्त नहीं है, जब कि तिर्यंच अनन्त हैं क्योंकि निगोद के अनन्तानन्त जीव तिर्यच ही हैं।
लेश्याएं एक दूसरी के रूप में परिणत हो जाती हैं। कृष्ण लेश्या के परिणाम वाला जीव नील लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मृत्यु को प्राप्त होता है, उस समय घह नील लेश्या के परिणाम वाला होकर उत्पन्न हाता है, क्योंकि जीव जिस लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मरण को प्राप्त होता है उसी लेश्या से युक्त होकर अन्यत्र उत्पन्न होता है। जैसे दूध, छाछ के संयोग से छाछ स्वभाव में अर्थात्