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-तेरहवां अध्याव
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आदि को ही बहुत अधिक मान बैठता है और उनकी अधिकाधिक वृद्धि की ओर ध्यान नहीं देता ।.
संयम आदि के मद का परित्याग करने का कथन करके सूत्रकार ने यह भी प्रदर्शित कर दिया है कि जब श्रात्मा के गुणों का अभिमान भी त्याज्य है तो धनदौलत आदि जड़, सर्वथा भिन्न एवं पर वस्तु के अभिमान का तो कहना ही क्या है ? वह तो पूर्ण रूप से त्याज्य है ही ।
अभिमानी पुरुष अपने को सब कुछ समझता है और अपने आगे दूसरे को कुछ भी नहीं समझता । वह अन्य पुरुषों को बिम्बभूत मानता है- परछाई की भाँति अकिंचित्कर समझता है - मानो उनकी वास्तविक सत्तां ही कुछ नहीं है ।
यह अभिमान कषाय अनेक प्रकार के कृत्यों में प्रवृत्त कराता है । भाषण न करने योग्य भाषा का प्रयोग कराता है । उचित एवं हितकारक कार्यों में प्रवृत्त नहीं होने देता । श्रात्म-विकास में घोर प्रति बंध रूप है । अतएव सर्वथा त्याज्य है ।
मूल:- पूयट्टा जसोकामी, माण सम्माण कामए ।
बहुं पसवइ पावं, मायासल्लं च कुव्वई ॥ ४ ॥
छाया:- पूजनार्थी यशस्कामी मानसन्मान कामुकः ।
बहु प्रसूते पापं मायाशल्यं च कुरुते ॥ ४ ॥
शब्दर्थाः - अपनी पूजा-प्रतिष्ठा का अर्थी, यश की कामना करने वाला तथा मानसन्मान की अभिलाषा रखने वाला बहुत पाप उपार्जन करता है और माया शल्य का
चरण करता है।
भाष्यः - प्रस्तुत गाथा में सूत्रकार ने मान के अभिलाषी पुरुष को होने वाली हानियों का तथा माया कषाय के कारण का एक साथ प्रतिपादन किया है ।
जो व्यक्ति यह चाहता है कि लोग हमारी पूजा करें - स्तुति - भक्ति करें--जगत मैं मेरे यश का विस्तार हो श्रीर सर्वत्र मेरा श्रादर-सत्कार हो, उसे अनेक पापों का श्राचरण करना पड़ता है और मायाचार का सेवन करना पड़ता है ।
पूजा, यश, मान-सम्मान की आकांक्षा से माया का जन्म होता है । अतएव सायाचार से बचने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि मनुष्य पूजा की स्पृहा न करें, यश का अर्थी न बने और मान-सम्मान की आकांक्षा से दूर रहे ।
किसी कवि ने कहा है-
यदि सन्ति गुणाः पुंसां, विकसन्त्येव ते स्वयम् ।
न हि कस्तूरिकामोदः, शपथेन प्रतीयते ॥
अर्थात् अगर किसी पुरुष में गुण हैं तो वे स्वयमेव विकसित हो जाते हैं । वाणी से गुणों के प्रकाशन की आवश्यकता नहीं होती । कस्तूरी में गंध है, इस बात