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. कयाय वर्णन करना ही न पड़ेगा-सभी को करना होगा। सभी मरेंगे और सभी परलोक जाएंगे। ऐसी स्थिति में जो अवस्था अन्य लोगों की होगी वह मेरी भी हो जाएगी। मैं अकेला क्यों चिन्ता करूं?
इस प्रकार का विचार करके नास्तिक काम में और भोग में अनुरक्त हो जाता है। काम-भोगों के भागने में वह स्वच्छन्द बन जाता है और अन्त में क्लेश प्राप्त करता है।
यहां यह ध्यान रखने की बात है कि प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता है और प्रत्येक जीव अपने-अपने किये हुए. पुण्य या पाप का फल स्वतंत्र भोगता है। दूसरा अगर पाप कर्म करता है तो उसका फल कोई दूसरा नहीं भोगेगा। इसी प्रकार पुण्य सा फल, उस पुण्य का कर्ता हा भोगेगा । एक के द्वारा उपार्जित अदृष्ट अनेक लोग थोड़ा-थोड़ा बंटवारा करके नहीं भोगते हैं । ऐसी अवस्था में यह विचार सर्वथा अज्ञानपूर्ण ही है कि जो औरोंका होगा, वह हमारा भी हो जायगा।
इसके अतिरिक्त इस प्रकार की विचारणा करने वाले लोग जगत् में विद्यमान त्यांगियों और तपस्वियों की और दृष्टिपात नहीं करते। वे कामी और भोगी जनों की और ही नज़र करते हैं और उन्हीं से एक प्रकार का मिथ्या आश्वासन पात हैं। उनमें यह सोचने का सामर्थ्य नहीं होती कि अगर दूसरे लोग भी दुःख एवं क्लेश के भागी होंगे तो हमारा दुःस्त्र और क्लेश कम नहीं हो जायगा। ..
संसार विचित्रताओं का घर है। यहां घोर से घोर पापी भी हैं और उच्च से उच्च श्रेणी के धर्मनिष्ट पुण्यात्मा पुरुप भी हैं। कहीं दुराचार की तेज बदबू मौजूद है तो कहीं सदाचार का सौरभ महक रहा है । कहीं अज्ञान का घना अन्धकार छाया असा है तो कहीं ज्ञान का उज्ज्वलतर प्रकाश चमक रहा है । कहीं वासनाओं की ‘ालिमा व्याप्त है. कहीं तप और त्याग की शुभ्रता दीप्त हो रही है । इन परस्पर विरोधी दो तत्त्वों में से जिले जो चुनना है, वह उसे चुन ले । नास्तिक पाप,दुराचार,
सान, वासना और कालिमा अपने लिए चुनता हैं और प्रास्थाशील आस्तिक इनसे विपरीत चुनाव करता है। नास्तिक की दृष्टि प्रयोगामिनी होती है, आस्तिक
गामिनी होती है। नास्तिक कृष्णपक्षी है, आस्तिक शुक्लपक्षी है । नास्तिक ही जिद और संकुचित होती है, सास्तिक विशाल और विस्तीर्ण दृष्टिवाला होता है। नास्तिक निम्न कोटि के पशु की नाई सिर्फ वत्तमान तक सोचता है,
स्तिक विप्य को भी सन्मुग्न रखकर अपने कर्तव्य का निर्णय करता है। नास्तिक अपने सापको बाद शरीर पिण्ड मात्र ही अनुभव करता है, यास्तिक अपनीछानमूर्ति
नना की अनुभूति का रसास्वादन करता है। नास्तिक के अन्तःकरण में भोग की उत्ताल तरंग उठती रहती है अतएव यह सदा सुब्ध रहता है, नास्तिक का अन्त:बार प्रशान्त और गंभीर सागर के समान क्षोमहीन होता है । नास्तिक जगत् का प सास्तिरसारका भूपरा है । दोनों में प्राकाश-पाताल का अंतर है।