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चौदहवां अध्याय
[ ५२६ } यही हाल है। ज्यों-ज्यों उन साधनों का संचय किया जाता है त्यों-त्यों सुख के बदले दुःख का संचय होता जाता है।
अकेला अादमी असंतुष्ट होकर परिवार में सुख का अनुभव करता है और बहुत परिवार बाला व्यक्ति परिवार की झंझटों के कारण अशान्ति का अनुभव करता है। निर्धन, धनवानों की स्थिति में सुख समझता है और धनवान् अपने धन के नष्ट न हो जाने की चिन्ता में रात-दिन व्याकुल रह कर निर्धनों की निश्चिन्तता की कामना करता है। राजा अपने पीछे लगी रहने वाली सैकड़ों उपाधियों से चिन्तित बना रहता है और रंक राजा का बैभव देखकर उसे पाने को लालायित रहता है। इस प्रकार बारीक दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि कोई भी मनुष्य अपनी प्राप्त . अवस्था में लखी नहीं है। अपने से भिन्न अन्य अवस्था को सब सुखमय मानते हैं। जब नवीन अभिलषित अवस्था प्राप्त हो जाती है तब उसमें भी असन्तुष्ट होकर फिर नवीन अवस्था पाने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार जन्म-मरण, अनिष्ट संयोग इष्ट वियोग, आदि की प्रचुर वेदनाओं ले यह जगत् परिपूर्ण है। .
सामान्यतया स्वर्ग में रहने वाले देवों को सुखी समझा जाता है। किन्तु उनके स्वरूप का विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि उनका सुख भी दुःख रूप है। पारस्परिक ईर्षा, उच्च-नीच भाव की विद्यमानता, स्वामी-सेवक संबंध, देवपर्याय के पश्चात् होने वाला तिर्यञ्च, नरक श्रादि योनियों का भ्रमण, इत्यादि.भनेक कष्ट स्वर्ग में विद्यमान रहते हैं । इन कष्टों के कारण देव भी सुस्त्री नहीं है। .. . जब देवता भी दुःख से अभिभूत हैं-वे भी अपनी इच्छा के अनुसार सदा काल अपरिमित सुखों का भोग नहीं कर पाते, तो औरों की बात ही क्या है ? . जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित पुरुष संताप का अनुभव करता है उसी प्रकार संसारी जीव घोर शारीरिक एवं मानसिक संताप भोगता है। ज्वर की.दशा में मनुष्य को एक क्षण भर भी शान्ति नहीं मिलती उसी प्रकार संसार में संसारी जीव क्षणभर भी शान्ति नहीं पाता । स्वर में जैसे मधुर पदार्थ कटुक प्रतीत होते हैं उसी प्रकार संसारी.जीव को सुख के सच्चे साधन और मधुर रस देने वाले तप आदि कर्म कटुक प्रतीत होते हैं।
.. इस प्रकार विपरीत रुचि होने के कारण संसारी जीव सुख के लिए पापाचार सेवन करता है। कोई चोरी करता है, कोई डाका डालता है, कोई व्यापार में बेईमानी करता है-अच्छी वस्तु दिखा कर तुरी दे देता है या मिलावट कर देता है। कोई घृत जैसे जीवनोपयोगी पदार्थ में तेल मिला देता है या वनस्पति घृत सरीने कृत्रिम घी को घी के भाव बेचता है। दूध में पानी का मिश्रण कर देता है। इस प्रकार से जनसमाज की स्वस्थता को विपद् में डालता है और मानव-समूह का घोर अहित करता है।
. कोई-कोई राक्षसी प्रकृति के लोग सुख की प्राप्ति के लिए कर्मादानों का सेवन