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मनोनिप्रह रुचि कहलाती है।
जिन भगवान् अथवा साधु मुनिराज के गुणों का करना, भक्तिभाव से उनकी प्रशंसा करना. स्तुति करना, गुरु श्रादि का विनय करना, दान, शील, तप और भावना में रुचि रखना, यह सब धर्मध्यान के लक्षण हैं।
धर्मध्यान का अभ्यास करने के लिए स्वाध्याय बहुत उपयोगी है। स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान रूपी प्रासाद पर प्रारूढ़ होने के चार उपाय बतलाये है-(१) वावना (२) पृच्छना ( ३) परिवर्तना और ( ४ ) अनुप्रेक्षा।
(क) वाचना-शिष्य श्रादि को सुत्र आदि पढ़ाना ।
(स) पृच्छना-सूत्र-आगम श्रादि के अर्थ में शंका होने पर उसके निवारण के लिए श्रद्धापूर्वक गुरु महाराज से पूछना।
(ग) परिवर्तना-पहले श्रभ्यास किये हुए सत्र प्रादि को उपस्थित रखने के ‘लिए तथा निर्जरा के उद्देश्य से उनकी श्रावृत्ति करना-अभ्यास करना ।
(घ) अनुप्रता-सूत्र और अर्थ का बार-बार चिन्तन-मनन करना।
धर्मध्यान प्रशस्त ध्यान है और वह चित को प्रातःयान एवं गंद्र ध्यान से बचाने के लिए भी उपयोगी है । मन कभी स्थिर नहीं रहता । वह सदा किसी न किसी विषय का चिन्तन करता रहता है। अगर उसे शुभ व्यापार में न लगाया जाय तो वह अशुभ व्यापार में लगे बिना नहीं रहता । वह निष्क्रिय होकर नहीं रहता। श्रतएव धर्मध्यान में व्याप्त करके उसे फ्रयाशील बनाये रस्त्रना चाहिए।
• योग शास्त्र के अनुसार धर्मध्यान के चार प्रकार और भी होते हैं। वे इस प्रकार है-(१) पिण्डस्थध्यान (२) पदस्थ ध्यान ( ३ ) रूपस्य ध्यान और (४) रूपातीत ध्यान । इनका संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार है:
१.पण्डस्थध्यान-पार्थिवी, आग्नेयी आदि गांव धारणाओं या एकान मन से चिन्तन करना।
(२) पदस्थध्यान-नाभि में सोलह पांखुड़ी के. हदय में चौवीस पड़ी के तथा मुख पर श्राठ पांखुड़ी के कमल की कल्पना करना और प्रत्येक पांखुड़ी पर वर्गमाला के श्र, श्रा, इ, ई, आदि वणों की अथवा णमोकार मंत्र के अक्षरी की स्थापना करके एकाग्र चित्त से उनका चिन्तन करना। तात्पर्य यह है कि किसी पद का श्रव. लम्पन करके मन को एकाग्र करना पदस्थ ध्यान है। .
(३) रूपस्थध्यान-शास्त्रों में प्रतिपादित भगवान् की शान्त वीतराग दशा को हृदय में स्थापित करके स्थिर चित्त से उसका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
(४) रूपातीमध्यान-रूप से रहित, निरंजन, निर्मल, सिद्ध भगवान् का अवलंबन लेकर, उस स्वरूप का श्रात्मा के साथ एकत्व का चिन्तन करना कपातील ध्यान दे।