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- मनोनिग्रह है जैसे-'संसारी जीवों के हित, सुख, मंगल, कल्याण और श्रेय के लिए सर्वक अगवान् ने धर्म देशना देकर सम्मार्ग प्रकट किया है, परन्तु अज्ञान जीव उस मार्ग: पर प्रारुद न होकर किस प्रकार कुमार्गगामी हो रहे हैं और उन्हें कितने कष्टों का सामना करना पड़ेगा ! उनकी कैसी दुर्गति होगी और वर्तमान में हो रहा है, इस प्रकार जीवों के हित का बिन्तन करन्म।
इल प्रकार का ध्यान करने से जीव को पापों के प्रति विरक्ति की भावना उत्पन्न होली है । वह पापों से बचकर श्रात्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होता है।
(ग) अपाय विचय धर्मध्यान-ज्ञानाचरण आदि कर्मों के फल के विचार रूप प्रणित को नपायविचय कहते हैं । जैसे-आत्मा स्वभावतः अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन आदि गुणों से मुक्त है । किन्तु ज्ञानावरण कर्म के उदय से उसका शान्ह गुण विकृत हो रहा है और दर्शनावरण कर्म ने उसकी अनन्त दर्शन शक्ति को खंडित फर रक्खा है। यद्यपि श्रात्मा अनन्त सुख का भंडार है मगर वेदनीय कर्म के उदय से सुख विकृत अवस्था में परिणत हो गया है और दुःख रूप बन गया है। वेदनीय कर्म के उदय से ही जीव रट विषयों की प्राहि होने पर साता का और अनिष्ट विषयों की प्राप्ति होने पर असाता का अनुभव करता है।
मोहनीय कर्य सब से बड़ा शत्रु है । वह इष्ट-घनिष्ट का, हित-अदित का, कर्तव्य-अकर्तव्य का सत्य-असत्य का और धर्म-अधर्म का विवेक नहीं होने देता। यही नहीं, चेतना गुण में वह ऐसा विकार पैदा कर देता है जिस से जीव विपरीत समझने लगता है। हित को अहित, धर्म को अधर्म, इसी प्रकार अहित को हित और धर्म को धर्म समझाने वाला मोहनीय कर्म ही है । यह कर्म आत्मा के सम्यक्त गुण का तशा चारित्र गुण का घात करता है और यात्मा की शक्तियों को मूर्छित वना डालता है। . शायु कर्म ने यात्मा को शरीर रूप कारागार में कैद कर रखता है। इस कई के उदय से आत्मा शरीर में बंधा रहता है। .
नाम कर्म को फल भी बहुत व्यापक होता है । वह अमूर्च श्रात्मा को मूर्त रूप प्रदान करता है। शरीर की, शरीर के आकार की तथा अन्य अनेक शारीरिक . पर्यायों की रचना करके श्रात्मामें विकृति उत्पन्न करता है।
गोत्र कर्म विशुद्ध निर्विकल्प वात्मा में ऊँच, नीच गोत्र की दृष्टि से आत्मा में विकल्प उत्पन्न करता है।
शामा मन्त शष्टियों का पुंज परन्तु अन्तराय कर्म उन शक्षियों के प्रकाश एवं विकास में विघ्न उपस्थित करता है। जैसे अक्षय भण्डार का अधिपति राजा किसी कारण पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो उसी प्रकार की दशा अन्तराय फर्म ने आत्मा की पना आली है।
इस प्रकार यह पाठों कर्म भात्मा को विकारमय एवं दुःच का माजन यनाये