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वैराग्य सम्बोधन के अन्य साधनों संबंधी ममता की अधिकता होती है वह सदा नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों में उलझा रहता है। उसे निराकुलता का अपूर्व आनन्द प्राप्त नहीं होता अतएव साम्यभाव की आराधना के लिए संसार को प्रशाश्वत समझकर उससे उदासीनता धारण करनी चाहिए । विचारना चाहिए कि समस्त संसार के पदार्थ नाशवान हैं। इनके साथ आत्मा का कुछ भी वास्तविक संबंध नहीं है । जीव जय जन्म लेता है तो पूर्वजन्म के किसी भी पदार्थ को साथ नहीं लाता और जव श्रायु पूर्ण करके परलोक की और प्रयाण करता है तब भी साथ में कुछ नहीं लेजाता। संसार के पदार्थ श्रात्मा का साथ नहीं देते । जीव मरकर जब नरक गति की भूख
और प्यास भोगता है, तिर्यञ्च गति की नानाप्रकार की व्यथाएँ सहन करता है, तब कोई भी वस्तु या पूर्वजन्म का कुटुम्बी सहायक नहीं बनता।
इतना ही नहीं, संसार में श्राज जिन्हें जीव अपना मानता है, जिनके स्नेह में । पड़कर धर्म को भी भूल जाता है, जिन्हें प्रसन्न करने के लिए कर्तव्य-अकर्तव्य के भान को एक किनारे रखकर सभी कार्य करता है, जिनके पालन-पोषण के हेतु नाना सावध क्रियाएँ करता है, जिनके अनुराग में रत रहकर शेष संसार को कुछ भी नहीं समझता, वे आत्मीय जन क्या वास्तव में आत्मीय हैं ? जो सचमुच मात्मीय होता है, वह त्रिकाल में भी आत्मा से अलग नहीं हो सकता । सम्यग्दशेन, सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र, आदि गुण आत्मा के लिए श्रात्मीय है, अतएव वे किसी भी काल में श्रात्मा से न्यारे नहीं होते। इसी प्रकार क्या कुटुम्बीजन सदा साथ देते हैं ? नहीं। .
संसार में ऐसा कोई जीव नहीं है जिसके साथ कोई संबंध न हो चुका हो. सभी जीवों के साथ सब का संबंध हो चुका है । अगर चे वास्तव में आत्मीय होते तो मया श्राज पराये बन सकते थे ? फिर भी रागान्ध मनुष्य की आने नहीं खुलतीं। वह अपनी आत्मीयता की भावना को एक छोटी-सी सीमा में चंद कर रखता है। जानी जन इस प्रकार विचार करते हैं कि-'संसार के समस्त संबंध नश्वर हैं। प्रात्मा सय पदार्थों से विलग है, उसके साथ किसी का संबंध नहीं हो सकता। शरीर में प्रात्मा रहता है, फिरभी दोनों के संयोग विनाश शील है। शरीर जड़ है
और मात्मा चिदानन्दमय है । दोनों का ऐक्य कैसे हो सकता है ? शरीर ही विनश्वर है तो संसार के अन्य संबंध, माता, पिता, पुत्र और भाई आदि के रिश्ते, कैसे नित्य हो सकते हैं? इन सब का संबंध तो शरीर के साथ है, जब शरीर दी स्थायी नहीं यह रिश्ते स्थायी कैसे हो सकते हैं ? ' मूलं नास्ति कुतः शाहा' अर्थात मूल के अभाव में शास्त्राएँ किस प्रकार ठहर सकती हैं ? ज्ञानी जन ठीक ही कहते
यस्यास्ति नैक्यं वपुपाऽपि सार्धम् ;
___ तस्यास्ति किं पुत्र कलत्र मित्रैः ? पृथक कृते चर्मणि ऐमकूपाः,
कुतो दि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥