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___वैराग्य सम्बोधन बुद्धिमान पुरुष जब-लोभ और मद से अतीत हो जाते हैं अर्थात् चारों प्रकार के . ' कपार से मुक्त हो जाते हैं और संतोष उन्हें प्राप्त हो जाता है तब वे पापों का उपाजैन नहीं करते।
तात्पर्य यह है कि जब तक कषायों की विद्यमानता है और संतोष वृत्ति अन्तः करण ले उत्पन्न नहीं होती, तब तक पाप का निरोध नहीं होता। ' लोभ पाप का. चाप वखाना' अर्थात् लोन पापों का जनक है। जब तक लोभ का प्रावल्य है तबतक मनुष्य भांति-भांति के प्रारंभ-समारंभ में निरत रहता है और पाप से बच नहीं सकता । इसी प्रकार अभिमान की विद्यमानता में भी पाप कर्म की उत्पत्ति होती रहती है।
__लोभ ता अभाव एकान्त तुच्छाभाव रूप नहीं है, यह सूचित करने के लिए 'सन्तोषी' कहा है। सन्तोषी नर सदा सुखी रहता है । उसे निरंभ वृत्ति से जो कुछ भी प्राप्त हो जाता है उसी में वह सन्तुष्ट रहता है । उससे अधिक की प्राप्ति के. लिए वह हाय-हाय नहीं करता। सच्चा सुस्त्र ऐसे ही पुरुषों को प्राप्त होता है। संतोष के अभाव में तीन लोक की समस्त सम्पत्ति भी तुच्छ है । असंतोषी उससे भी अधिक की भाशा रखता है, अतएव वह संपत्ति भी उसे सुखी नहीं बना सकती। इसके विपरीत संतोषी नर लखे-सूखे चने चयेने को भी पर्याप्त समझकर उसे ग्रहण करता है और उसी में सुरू मान लेता है।
___ बारीकी से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि संसार का अधिकांश दुःस्त्र असंतोप से उत्पन्न होता है । असंतोष को जितने अंशों में घटाते चले जाओ, उतने ही अंशों में दुःख घटता चला जायचा । श्रतएव हे भव्य प्राणी तू संसार का वैभव प्राप्त करने का वृथा प्रयास मत कर । यह तो प्रकाश को लांघने के समान वालचेष्टा है। अगर तुझे सुखी होना है तो संतोप वृद्धि धारण कर।
. संतोष वृत्ति का अन्तःकरण में उदय होते ही तेरा दुःख न जाने कहां विलीन्ट हो जायगा और तब तेरे कमाँ के श्रानव का भी निरोध हो जायगा। मूलः-डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे,
ते प्रात्तो पस्सइ सव्व लोए। उव्वेहती लोगमिणं महंतं,
बुद्धेऽप्यमत्तेसु परिव्वएजा ॥ १६ ॥ झाया:-दिम्भ प्राजो वृद्धश्र प्राणः, स प्रारमवत् पश्यति सबलोकात् ।
टोपते बोदमिमं महान्तम् युद्धोऽप्रमत्तेपु परिप्रजेन् शब्दार्थ:-छोटे और पड़े सभी प्राणियों को-समस्त लोकों को जो अपने समान देखता ई और इस महान लोक को अशाश्वत देखता है वह मानी संयम में रत रहता है ।।