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aadi अध्याय
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रहता है तो अशुभ भावनाओं को उसमें श्रवकाश ही नहीं रहता । इसी कारण यहाँ अध्यात्म भावना से पापों के संहार का विधान किया गया है ।
मूल:- साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य ।
पावकं च परीणामं, भासादोसं च तारिसं ॥ १४॥
छाया:-- संहरेत् हस्तपादौ वा, मनः पञ्चेन्द्रियाणि च । पावकं च परिणामं, भाषादोषं च तादृशं ॥ १४ ॥
" शब्दार्थ:-- ज्ञानीजन, कळंबे की भांति हाथों और पैरों की वृथा चलन क्रिया को, सन की चपलता को ओर विषयों की ओर जाती हुई पांचों इन्द्रियों को तथा पापोत्पादक विचार को तथा भाषा सम्बन्धी दोषों को रोक लेते हैं ।
भाष्यः—गाथा का अर्थ स्पष्ट है । श्राशय यह है कि ज्ञानी पुरुष अपने मन और इन्द्रियों को तथा वाणी को पूर्ण रूप से अपने नियंत्रण में ले लेते हैं । वे सामान्य रुषों की भांति इन्द्रियों के दास नहीं रहते किन्तु इन्द्रियों को अपनी दासी बना लेते हैं । वे मन की मौज पर नहीं चलते वरन् मन रूपी घोड़े की लगाम को अपने हाथों. में थाम कर उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाते हैं । मन उनपर सवार नहीं हो पाता, वे स्वयं उस पर सवार रहते हैं ।
इसी प्रकार वाणी का प्रयोग भी वे विवेक पूर्वक ही करते हैं। आवेश के प्रबल कारण उपस्थित होने पर भी वे श्रावेश के वश हो कर यद्वा तद्वा नहीं बोलते । हित, मत और निरवद्य वाणी का ही प्रयोग करते हैं । वे भाषा संबंधी समस्त दोषों से बचते हैं । प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशांची, शौरसेनी और अपभ्रंश, यह छह प्रकार की गद्य रूप और छह प्रकार की पद्य रूप- इस प्रकार भाषा के बारह भेद किये गये हैं और विश्व की समस्त भाषाओं का इन्हीं छह में समावेश हो जाता है । यहाँ भाषा का तात्पर्य वचन से है, अर्थात् साधु को पापजनक वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, किन्तु साथ ही भाषा शास्त्र के नियमों के अनुसार वचन प्रयोग करना भी आवश्यक है । अतएव साधु को भाषा संबंधी नियमों का ज्ञाता होना चाहिए, अन्यथा विद्वत्समूह में गौरव की रक्षा नहीं हो सकती ।
मूल:- एयं खु पाणिणो सारं, जं न हिंसति किंचणं ।
हिंसा समयं चैव, एतावतं वियाणिया ॥ १५ ॥
छाया:- एतत्खलु ज्ञानिनः सारं यच हिंस्यति किञ्चनम् । : श्राहसा समयं चैन, एतावती विज्ञानिता ॥ १५ ॥
शब्दार्थ : - ज्ञानी जनों का सार है - किसी जीव की हिंसा न करना । अहिंसा ही संग्रम है - आगम का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है और अहिंसा ही विज्ञान है ।
भाग्यः - हित-अहित का विवेचन करने में कुशल पुरुषों ने ज्ञान का सार