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arra संम्बोधन
करते हैं, कोई-कोई तो कत्लखाने तक चला कर घोरतर पशु हिंसा करते हैं । कोई चाकरी करते हैं, काई - फौज में भर्ती होकर पेट के लिए - युद्ध में लड़ने जाते हैं, कोई कुछ और कोई कुछ करते हैं । इस प्रकार सुख की प्राप्ति के लिए प्रज्ञान प्राणी नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते देखे जाते हैं । इन पूर्वोक्क पाप रूप चेष्टाओं के कारण उसे पाप कर्म करने का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप दुःख उठाना पड़ता है । इस प्रकार सुख के लिए किये जाने वाले प्रयत्न दुःख के हेतु बन जाते हैं । और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि श्राम खाने के लिए यदि कोई नीम का वृक्ष लगाएगा तो उसे ग्राम के चन्दले नीम का ही फल प्राप्त होगा ।
अनुकूल कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । दुःख के देतुनों से सुखकदापि नहीं मिल सकता । चालू से तैल नहीं निकल सकना और आरम्भ, परिग्रह एवं सावद्य व्यापार से सुख नहीं मिल सकता । श्रतएव सुख के सच्चे साधन धर्म को अहण करो तो सुख की प्राप्ति होगी। सावध क्रियाओं से उपरत होना, निरवद्य क्रियाओं में संलग्न रहना, त्याग शील बनना, श्रादि धर्म रूप व्यापार हैं, जिनसे सच्चे सत्र की प्राप्ति होती है । श्रतएव सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी बन कर सम्यक्चारित्र का सेवन करना चाहिए। संसार को दुःखमय समझकर उसमें अनुरक्त नहीं होना चाहिए । यही सुख की प्राप्ति का साधन है।
मूलः - जहा कुम्मे सगाई, संए देहे समाहरे |
एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥ १३ ॥
कायाः - यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वदेढे समाहरेत् ।
एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ॥ १३ ॥
शब्दार्थ : - जैसे कछुवा अपने अंगों को अपने शरीर में संकुचित कर लेता है, इसी प्रकार बुद्धिमान् पुरुष अध्यात्म भावना से अपने पापों को संकुचित कर लें ।
भाभ्यः-- पहली गाथा में पाप रूप व्यापार से उपरत होने का विधान किया गया है । किस प्रकार पाप से उपरत होना चाहिए, यह बात यहां उदाहरण के साथ बताई गई है।
जैसे कछुवा अपनी ग्रीवा आदि गों को, विपद् की संभावना होते हो, अपने शरीर में छिपा लेता हैंई-उन अंगों को व्यापार रहित बना लेता है, इसी प्रकार, सत्अस का विवेक रखने वाले बुद्धिमान पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह पाप रूप असत, व्यापारों को अध्यात्म भावना का सेवन करके अर्थात् सम्यक् धर्मध्यान आदि की प्रासेवना से विलीन करदे । मन सदा व्याप्त रहता है। वह निष्क्रिय एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता । श्रतएव अशुभ भावनाओं से बचाने के लिए, यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि मन में धर्म भावनाएँ उदित की जाएँ । धर्म भावनाएँ उदित होने से पाप भावनाएँ स्वतः विलीन हो जाती हैं। जब मन शुभ भावनाओं से व्याप्त