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कषाय वर्णन - इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थ श्रात्मा से भिन्न हैं, फिर भी मनुष्य उन्हें अपना समझता है। इसी प्रकार दूसरे पदार्थो को परकीय समझता है-अर्थात् वह कुछ पदार्थों पर राग भाव करता है और कुछ एर द्वेष का भाव धारण करता है। अथवा वस्तुतः वे पदार्थ दूसरी श्रात्मा के नहीं हैं फिर भी उन्हें उनके समझता है । इस मिथ्या समझ के कारण जव कर्म-जन्य पदार्थों का संयोग होता है तो इष्ट संयोग होने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है और अनिष्ट संयोग होने पर दुःख का अनु. भव करता है। इसी प्रकार उनके वियोग में दुःख-सुख की कल्पना करता है।
इन कल्पनाओं के जाल में फंसकर जीव अपनी वास्तविकता को तो भूल जाता है। यह कार्य मुझे कल करना है' 'अमुक काम अमुक समय करना हैं' 'यह मुझे नहीं करना है' इत्यादि संकल्प विकल्पों में ही पड़ा रहता है।
इन संकल्प-विकल्पों का कहीं अन्त होता तबतो गनीमत थी, पर उनका कहीं और कभी अन्त नहीं प्राता। एक संकल्प पुण्योदय से शागर पूर्ण हो जाता है तो अन्य अनेक संकल्प नवीन उत्पन्न हो जाते हैं। फिर वे सब पूर्ण भी नहीं हो पाते कि नवीन-नवीन फिर उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार संकल्पों की अनवस्था जीवन को कभी निश्चिन्त नहीं होने देती।
घर तो मनुष्य संकल्पों को पूर्ण करने की चेष्टा में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है, उधर रात और दिन रूपी चोर बहु मूल्य जीवन के भाग सदैव हरण करते रहते हैं। वे प्रतिपल श्रायु का कुछ भाग हरलेते हैं। एक और संकल्प-विकल्पों की पूर्ति का प्रयत्न चाल रहता है और दूसरी ओर काल की क्रिया निरन्तर जारी रहती है। परिमित आयु का अन्त श्रा जाता है, पर अपरिमित संकल्पों की समाप्ति नहीं होने पाती। अन्त में प्राणी इन संल्प-विकल्पों के साथ ही परलोक की ओर प्रयाण कर देता है।
मृत्यु यह नहीं सोचती कि इसके संकल्प पूर्ण हो गये हैं या नहीं? वह तो पाती है और जीवन-धन का हरण करके तत्काल नाम शेष कर जाती है। ऐसी अव. स्था में कोई भी ज्ञानवान पुरुष प्रमाद में जीवन कसे यापन कर सकता है ? जानी पुरुप अपने जीवन का काल यात्मा के श्रेयस् के लिए अर्पण करता है। वह चाहा उपाधियों से अलग होकर-परकीय पदार्थों को अपना न मानता हुशा, सिर्फ अपने को (शात्मा को ही अपना समझता है और उसीके शाश्वत्त कल्याण में निरन्तर निरत रहता है। ऐसे पुरुष अप्रमत्त होकर, निष्कपाय होकर, देह से सदा के लिए मस्त होते हैं, सिर होते हैं । वही महापुरुष अनुकरणीय हैं।
निर्गन्ध-प्रवचन-तेरहवां अध्याय समाप्त