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वैराग्य सम्बोधन कर्म उपार्जन करोगे। जब पूर्वार्जित पाप या पुण्य का दुःख रूप या सुख रूप फल प्राप्त हो तो उसे अपने ही कर्म का फल समझ कर साम्य भाव एवं धैर्य के साथ सहन करो। पहले जो ऋण अपने मस्तक पर चढ़ाया है, उसे उतारते समय विषाद. युक्त एवं अधीर बनने से क्या काम चलेगा ? उसे तो किसी भी अवस्था में चुकाना पड़ेगा। हां, भविष्य का विचार करो और निश्चय करलो कि अब जो कर्म करोगे उतका फल भी इसी प्रकार भोगना पड़ेगा। . इस प्रकार विवेक और धैर्य का सहारा लेने से भविष्य कालीन दुःख से अपनी रक्षा कर सकोगे । साथ ही उपस्थित दुःख की माना भी न्यून हो जायगी। यह स्मरण रखना चाहिए कि सुख-दुःन जहां वाह्य निमित्तों पर श्रवलंबित हैं, वहां अपनी मनोवृत्ति पर भी उनका बहुत कुछ श्राधार है । दृढ़ मनोवृत्ति पर्वत के समान भारी दुःख को भी राई के वरावर वना देती है और कातर भाव से राई के बराबर दुःख भी पर्वत के समान बन जाता है।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को निम्न लिखित वातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए:
(१) जो कर्म अाज किया जाता है, उसका फल भविष्य में अवश्यंभावी है।
(२) कृत कर्मों का फल भोगने के लिए जीव को ना-ना योनियों में भ्रमण करना पड़ता है।
(३) अपने किये हुए कमों का फल प्राणी आप ही पाता है। फल भोगने के लिए न ईश्वर की अपेक्षा होती है और न किसी अन्य की।
इन बातों का ध्यान रखकर विवेकियों को प्रवृत्ति करनी चाहिए । मूलः-विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकायरियाइमीसणा।
पाणे ण हणति सबसो, पावायो विरयाभिनिव्वुडा ५ साया:-वित्ता वीराः समुस्धिताः, क्रोध कातारकादिपीपणाः ।
मागिनो न प्रन्ति सर्वशः, पायाद विरता अभिनिताः ॥५॥ थब्दार्थ:-जो पौद्गलिक सुख से तथा हिंसा आदि पापों से विरक्त हैं,जो सम्यक चारित्र की उपासना में सावधान है, जो क्रोध, मान, माया और लोभ को नाश करने वाले हैं, वे मन, यचन एवं काय से प्राणियों की हिंसा नहीं करते। ऐसे वीर पुरुष मुक्तनमानों के समान शान्त हैं।
भाष्यः-प्रकृत गाया में सोध के ग्रहण से मानका भी ग्रहण किया गया । कातरिका का अर्थ माया । 'कातरिका' के ग्रहण से लोम का भी ग्रहण हो जाता है।
यहां यह स्पष्ट किया गया है कि विषयजन्य सुस्त्रों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के पारंभ-समारंभ करने पड़ते हैं । विषयजन्य सांसारिक सुग्न या पदार्थों