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वैराग्य सम्वोधन अंगीकार करके विचरते हैं और जिन्होंने शरीर में रहते हुए भी शरीर संबंधी ममत्व का त्याग कर दिया है, वे अन्य कुटुम्बियों में ममता कैसे धारण कर सकते हैं ? के संसार से परे पहुंच चुके हैं। उनके लिए शत्रु, मित्र, पिता, पुत्र, माता और पत्नीसब समान हैं। उनकी किसी भी प्राणी के साथ कोई भी विशेष नातेदारी नहीं है । उन पर कुटुम्ब परिवार का कुछ भी उत्तरदायित्व नहीं है ।
क्या यही सब विधि-विधान गृहस्थ को लागू किये जा सकते हैं ? जो गृहस्थ सांसारिक व्यवहारों में प्रवृत्ति कर रहा हैं, अनेक प्रकार के प्रारंभ-समारंभ करके धनोपार्जन करता है, अपने लिए भवनों का निर्माण करता है, सन्तानोत्पत्ति करता है, क्या वह भी कुटुम्ब के उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकता है ? उसके लिए माता पिता की सेवा करना एकान्त पाप कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । इस प्रकार का विधान करना अज्ञान की चरम सीमा है ।
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यह श्राशंका की जा सकती हैं कि यदि गृहस्थ के लिए माता-पिता की सेवा करना एकान्तं पाप नहीं है तो 'मायाहिं पियाहि लुप्पद्द' यह वाक्य भगवान् ने क्यों कहा है ? इसका समाधान स्पष्ट है । भगवान् ऋषभदेव अपने पुत्रों को मुनित्रत धारण करने का उपदेश दे रहे हैं और इसी कारण श्रारंभा विरमेज सुब्धए ' इन शब्दों का भी प्रयोग किया है अर्थात् ' सुवती पुरुष प्रारंभ से निवृत्त हो जाय ।' इस प्रकार मुनि वृत्ति के उपदेश में, इस प्रकार का कथन वाधक नहीं है । इस उपदेश से यह नहीं सिद्ध होता कि गृहस्थ माता-पिता की सेवा न करे । जो सब प्रकार के आरंभ से निवृत्त होगा-मुनि होगा - उसके लिए उनकी सेवा करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है।
अतएव स्नेह रूप बंधन को जन्म-जन्मान्तरों में अनेकानेक कष्टों का कारण. समझ कर - संसार भ्रमण रूप भय का विचार करके प्रारम्भ अर्थात् सावध क्रिया से निवृत्त हो जाना चाहिए। जो आरम्भ से निवृत्त होता है वही सुनती हो सकता है । गृहस्थी छोड़ देने पर भी जो अनेक प्रकार के प्रारम्भ में अनुरक्त रहते हैं, व सुमती नहीं कहलाते ।
मूल:- जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, यो तस्स मुचेजsपुयं ॥४॥
दायाः- यदिदं जगति पृथगू जगत्, कर्मभिः लुप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतगीते, न तस्य मुच्येत् अस्पृष्टः ॥ २ ॥
शब्दार्थ:--संसार में अलग-अलग निवास करने वाले प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए नरक आदि यातना के स्थानों में जाते हैं। वे अपने कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं पाते ।
माया- जो माथी हिंसा आदि पाप कर्मों से विरत नहीं होते, उनकी का
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