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चौदहवां अध्याय
[ ५१३ ममता के बंधन में जकड़े हुए लोग कर्तव्य पूर्ति के लिए तनिक भी चेष्टां नहीं कर पाते । अन्ततः वही स्नेह आगामी भव में भी उनकी दुर्गति का कारण होता है।
' इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी दुर्गति-गमन आदि भय के कारणों पर विचार करके विवेक-विभूषित व्यक्ति को सावद्य अनुष्ठान रूप आरंभ से निवृत्त होना चाहिए और वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट अहिंसा श्रादि सुव्रतों का आचरण करना चाहिए।
___ कुछ श्रज्ञान पुरुष इस प्रकार के उपदेश से यह तात्पर्य निकाल लेते हैं कि पुत्र को माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा नहीं करनी चाहिए। अगर कोई पुरुष उनकी सेवा करता है तो वह एकान्त पाप है । संसार से सब प्रकार का नाता तोड़ लेने वाले, अध्यात्म की साधना में लगे हुए और जगत् के प्राणी मात्र पर समान भाव स्थापित कर चुकने वाले महात्माओं के लिए यह कह जाय तो संगत हो सकता है, पर यह बात जब गृहस्थ के लिए भी कही जाती है तो विचारणीय बन जाती है। पुत्र पर माता-पिता का अलीम उपकार है । परमोत्तम मानव-जीवन की प्राप्ति में वे निमित्त हैं। अनेक कष्ट उठाकर वे पुत्रका परिपालन करते हैं। कुसंगति से बचाकर सत्संगति का अवसर प्रदान करते हैं। पुत्र में जो बुद्धिबल हैं, प्रतिमा का वैभव है, भलाई-बुराई को समझने के विवेक की क्षमता है वह प्रायः माता-पिता की ही कृपा का फल है। इसी कारण शास्त्रकारों ने माता-पिता के उपकार की गुरुता का वर्णन करते हुए कहा है'कोई 'कुलीन पुरुष प्रतिदिन प्रातःकाल होते ही शतपाक, सहस्रपाक जैसे तैलों से माता-पिता के शरीर की मालिश करे । मालिश करके सुगंधित द्रव्यों से उबटन करे। उचटन करके उन्हें सुगंधित एवं शीतोष्ण जल से स्नान करावे । तत्पश्चात् सभी अलं. कारों से उनके शरीर को अलंकृत करे । वस्त्रों एवं आभूषणों से अलंकृत करके मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यंजनों सहित भोजन करावे और इसके पश्चात् उन्हें अपने कंधों पर बैठा कर फिरे जीवन पर्यन्त ऐसा करने पर भी पुत्र माता-पिता के महान् उपकार से . उऋण नहीं हो सकता।
इतनी प्रवल चेष्टाएँ करते रहने पर भी जिन माता-पिता के उपकार से उऋण नहीं हो सकते, उनकी सेवा करने वाले पुत्र को एकान्त पापी बतलाना घोर अज्ञान का परिणाम है।
श्रागम के अनुसार पुत्र यदि केवली भगवान् द्वारा निरूपित धर्म का कथन करके, उसका बोध देकर माता-पिता को धर्म में दीक्षित करदे तो वह माता-पिता के परम उपकार का बदला चुका सकता है।
वास्तव में अवस्था-भेद से मनुष्य के कर्त्तव्य में भी भिन्नता आ जाती है। गृहस्थ के लिए जो परम कर्तव्य है, वह साधु के लिए अकर्तव्य हो सकता है और साधु का प्रत्येक कर्तव्य गृहस्थ के लिए अनिवार्य नहीं है । गृहस्थावस्था और मुनिअवस्था भिन्न-भिन्न हैं और दोनों के कर्तव्य कार्यों का केवली भगवान ने पृथक-पृथक निरूपण किया है। जो भाग्यशाली महापुरुष संसार को त्याग देते हैं, महाव्रतों को