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चौदहवां अध्याय तो उसे शरद-पूर्णिमा के चन्द्र का दर्शन हुआ । उसके लिए वह दृश्य अपूर्व था। अतः अपने कुटुम्ब के व्यक्कियों को चन्द्र दिखलाने की इच्छा से उसने पानी में डुबकी लगाई । जब वह उन्हें साथ लेकर आया तब तक छेद बंद हो गया था । अब दूसरी बार चन्द्र-दर्शन होना बहुत कठिन है । कदाचित् दैवीशति की सहायता से कछुए को ऐसा अवसर फिर मिल जाय, किन्तु मनुष्य भव पाकर पुण्योपार्जन न करने वाले को पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है।
(८) स्वयंभूरमण समुद्र के एक किनारे गाड़ी का युग (जूबा) डाल दिया जाय और किनारे पर समिला (कील ! डाल दी जाय, दोनों समुद्र की तरंगों में इधरउधर भटकते-सटकते मिल जाएँ और वह कील जूए, के छेद में घुस जाय । यह 'घटना अत्यन्त कठिन है । इसी प्रकार मानव भव की पुनः प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। .
(8) जिस प्रकार देवाधिष्ठित पाशों से खेलने वाले पुरुष को सामान्य पाशी से खेल कर दुगना अत्यन्त कठिन है, उली प्रकार मनुष्य भव पाकर विशिष्ट पुण्य उपार्जन न करने वाले को पुनः मानव पर्याय की प्राप्ति होना कठिन है ।
(१०) एक विशाल स्तम्भ के टुकड़े-टुकड़े इतने सूक्ष्म हुकसे जिनके फिर टुकड़े न हो सके-करके कोई देव एक नली में भर ले और सुमेरु पर्वत की चोटी पर जाकर, जोर से फूंक मार कर उन तमाम टुकड़े (अणुओं) को हवा में उड़ा देवे। क्या कोई पुरुष उन समस्त अणुओं को इकट्ठा करके, फिर उस स्तम्भ की रचना कर सकता है ? अत्यन्त कठिन है। पर कदाचित् दैवी शक्ति से ऐला हो सकता है, किन्तु मनुष्य भव पाकर उसे वृथा गँवा देने वाले को मनुष्य भव की प्राप्ति होना उससे भी अधिक कठिन है।
' इन दस दृष्टान्तों से मनुष्य भव की दुर्लभता की कल्पना की जा सकती है । वास्तव में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति होना अतिशय पुण्य का फल है। जिसे इस पुण्य के संयोग से यह भव प्राप्त हो गया है, उन्हे इसका वास्तविक मूल्य और महत्त्व अंकित करना चाहिए एवं उससे अधिक से अधिक लाभ उठाने की चेष्टा करनी चाहिए । तुच्छ कामभोगों में उसे व्यतीत कर देना घोर अविवेक है। एक बार जर
बह व्यतीत हो जाता है तो दूसरी बार मिलना सरल नहीं है । अतएव मनुष्य भव .. पाकर धर्म के आचरण द्वारा आत्मकल्याण करना विवेकी पुरुषों का परम कर्तव्य है। . मूलः-डहरा बुड्ढा य पासह, गम्भत्था वि चयति मागवा ।
सेणे जह वट्टयं हरे, एवमाउखयम्मि तुट्टई ॥२॥ छायाः-दहरा बृद्दाश्च पश्यत, गर्भस्था अपि चयन्ति मानवाः ।
श्येनो यथा वर्तिका, हरदेवमायुः क्षये त्रुट्यति ॥ २॥ शब्दार्थः-श्री ऋषभदेव अपने पुत्रों से कहते हैं-बालक, वृद्ध और यहां तक कि