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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * निन्ध- प्रवचन
॥ चौदहवां अध्याय ।।
वैराग्य सम्बोधन
भगवान् श्री ऋषभ-उवाचमूलः-संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा ।
यो एवणमति राइनो, नो सुलभं पुणरावि जीवियं १ छाया:-सबुध्यध्वं किं न वुध्यध्वं, सम्बोधिः खलु प्रेत्य दुलभा ।
नो खलूपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥ ३॥ शब्दार्थः-भव्यों ! सधर्म का स्वरूप समझो। तुम समझते क्यों नहीं हो ? मृत्यु के पश्चात बोध प्राप्त होना दुर्लभ है। बीती हुई रात्रि फिर लौट कर नहीं आती और पुनः मानव जीवन की प्राप्ति सुलभ नहीं है।
भाष्य:-पिछले अध्ययन में कषाय का वर्णन किया गया है और उससे मुक्त होने की प्रेरणा की गई है। किन्तु जब तक हृदय में सांसारिक पदार्थों के प्रति तीव्र अनुगंग विद्यमान रहता है तव तक कषाय से मुक्ति होना संभव नहीं है । अन्तस्करण में विराग-भावना का जन्म होने पर कषाय क्षीण होने लगता हैं । अतएव कषायअध्ययन के अनन्तर वैराग्य-सम्बोधन नामक अध्ययन कहा है।
इस अध्ययन में, अन्य अध्ययनों की अपेक्षा एक विशेष बात यह है कि अन्य श्रध्ययन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उपदेश रूप में है और प्रकृत अध्ययन श्रादि तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव के सदुपदेश से प्रारम्भ हुश्रा है।
भगवान् ऋषभदेव जव निर्ग्रन्थ दीक्षा से दीक्षित हो गये, तब उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत ने सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करना प्रारम्भ किया । भगवान् ऋषभदेव ने अपने सब पुत्रों को राज्य बांट दिया था, पर भरत उन सब को अपने अधीन बनाना चाहते थे । इस प्रकार महाराज भरत द्वारा सताये जाने पर उन्होंने भगवान श्री ऋषभदेव के समीप जाकर कहा-'प्रभो । भरत हमें अपने अधीन करना चाहते हैं। वह यह चाहते हैं कि इस सब उनकी श्राजा का पालन करें। इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए ? भगचान ने उन्हें जो उपदेश उस समय दिया था, उसी का यहां उल्लेख किया गया है।
· भगवान ऋषभदेव कहने लगे-हे भव्यों ! तुम लोग बोध प्राप्त करो अर्थात्