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तेरहवां अध्याय वे लोग इन्द्रियों के अनुगामी होकर पग्लोक संबंधी सुखों की परोक्षता का बहाना बनात हैं। वे लोग अपनी काम-भोग संबंधी आसक्ति का औचित्य सिद्ध करने के लिए कहने लगत हैं कि-इम जीवन के सुख तो प्रत्यक्ष-से दृष्टिगोचर हो रहे हैं
और परलोक का पता नहीं है। ऐसी स्थिति में परलोक के भरोसे रहकर इस लोक के सुखों ले क्या वंचित रहे ?
. वस्तुतः यह विचारधारा भ्रान्तियुक्त है । जब परलोक का अस्तित्व युक्तिसिद्ध है तब उसे न देखने मात्र से उस पर संदेह नहीं किया जा सकता । संसार में प्रतिदिन महस्त्रों व्यापार भविष्य काल की भाशा पर होते हैं। किसान पहले घरमें रक्खे हुए धान्य को खत की मिट्टी में मिला देता है, सो केवल भविष्य की आंशा पर निर्भर रहकर ही । आगामी विशेषतर लाभ के लिए प्राप्त धान्य का परित्याग किया जाता है। यदि किसान नास्तिकों का अनुकरण करके, भविष्य की उपेक्षा करता हुआ धान्य को खेतमें न फेंके और सोचने लगे कि भविष्य की फसल किसने देखी है ? कौन जाने फसल आएगी या नहीं ? क्या पता है कि मैं तबतक जीवित रह सकूँगा या नहीं ? ऐसी स्थिति में घर में मौजूद धान्य को क्यों खेत में डालूं? जो प्राप्त है उसी का उपभोग क्यों न करूं ? तो आगे चल कर उस किसान की क्या दशा होगी? प्राप्त-धान्य की समाप्ति हो जाने के पश्चात् उसका जीवन-निर्वाह कैसे होगा ? इतना ही नहीं, 'अन्नं वै प्राणाः' अर्थात् अन्न ही प्राण है-इस कथन के अनुसार किसान द्वारा तैयार होने वाले अन्न पर निर्भर रहने वाले शेष मनुष्यों का जीवन भी समाप्त हो जायगा।
वणिक पहले घर की पूंजी लगाकर भविष्य के लाभ के लिए व्यापार करता है। नास्तिक की विचाधारा को मान्य किया जाय तो अनिश्चित भविष्य में होने वाले लाभ की आशा से वर्तमान में प्राप्त धन का व्यय क्यों किया जाय ? इसी प्रकार अन्यान्य लौकिक कार्य यदि स्थगित हो जाएँ तो संसार का क्या स्वरूप होगा, यह विचाररणीय है।
सत्य यह है कि त्यागकेविना लाभ होना असंभव है। जो जितनी मात्रा में त्याग करेगा उसे उतनी ही मात्रामें लाभ हो सकता है। मगर जिनमें दीर्घदर्शिता नहीं है, सुनहरीभविष्य की कल्पना करने में जिनकी मेघा-शक्ति कुंठित होजाती है, जो संकुचित एवं क्षुद्र दृष्टि वाले हैं वे लोग भविष्य की उपेक्षा करते हैं। उनमें अनपढ़ किसानों के बरावर भी श्रास्तिकता नहीं है। वे व्यापारी के बराबर भी आस्थाशील नहीं हैं । ऐसे लोगों की क्या दशा होगी? उनकी भविष्य में वही दशा होगी जो सम्पूर्ण मूल पूंजी खा जाने वाले वणिक की होती है और बीज न वोकर घर के सव धान्य को उदरस्थ कर लेने वाले किसान की होती है। यही नहीं, बल्कि कामी-भोगी जीव की गति किसान और वणिक की अपेक्षा अधिक निकृष्ट हो जाती है। किसान धान्य उधार लेकर फिर वो सकता है और वणिक ऋण लेकर व्यापार कर सकता है । परन्तु जो लोग पूर्वोपार्जित पुण्य के उद्य से प्राप्त विषयभोग भोगकर पुण्य को क्षीण कर चुकते हैं और आगे के लिए