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काग वर्णन उनकी विद्यमानता यताना, भीतर से मलिन, पापाचारी होते हुए भी ऊपर से पवित्र और धर्मात्मा होने का ढोंग करना, अपना कलुषित स्वार्थ साधना, यह दंभ है।
अपनी जाति, कुल, मर्यादा, पद, प्रतिष्ठा, धन, परिवार, सत्ता, ऐश्वर्य, वल, विद्या, बुद्धि, धर्म, रूप श्रादि शरीर की उपाधियों का अभिमान करना और दूसरों का अपमान करना, दूसरों को तुच्छ तथा नीच एवं अस्पृश्य मानना यह दर्प कहलाता है। इसी प्रकार अभिमान करना, क्रोध करना एवं परुपता करना अर्थात् दूसरों के साथ कठोर व्यवहार करना, रुखाई दिखाना, दयापूर्ण व्यवहार न करना, इत्यादि. तथा अज्ञान होना यह सब त्रासुरी प्रकृति के लक्षण हैं। दैवी प्रकृति मोक्ष का कारगड है और श्रासुरी प्रकृति बंध का कारण है।"
श्रासुरी प्रकृति के संबंध में और भी कहा है । " श्रासुरी प्रति के मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते । न उनमें पवित्रता होती है, न प्राचार और सत्य ही रहता है। तात्पर्य यह कि आसुरी प्रकृति के नास्तिक लोग इस बात का कुछ मी विचार नहीं करते कि कौन सी क्रियाएँ प्रवृत्तिरूप हैं और कौन सी निवृत्तिरूप हैं। किस तरह के प्राचरणों से वंधन होता है और किस तरह के प्राचरणों से मोक्ष? कौन से कर्म ( कार्य ) दुरे हैं और कौन से अच्छे ? उनका अन्तःकरण दभ, दर्प. काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्षा, द्वेष, श्रादि विकारों से सदा ग्रसित रहने के कारण मलिन रहता है। वे जगत् को पसंत्य बतलाते हैं, ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । श्रासुरी प्रकृति के नास्तिक लोग केवल प्रत्यक्षवादी होते हैं। अदृष्ट आत्मा अथवा परमात्मा को वे नहीं मानते। उनका मत है कि न कोई भात्मा है, न कोई ईश्वर है, न पुरय है, न पाप है । यह सब झूठी कल्पनाएं हैं । जो कुछ है, स्थूल जगत् ही है। शरीर की उत्पत्ति से पहले कुछ भी नहीं होता और मरने के बाद कुछ शेष नहीं रहता।"
इस प्रकार नास्तिक मिथ्याष्टियों अथवा पारसुरी प्रकृति के लोगों का सर्वत्र वर्णन किया गया है और यह बताया गया है कि उनकी यह दृष्टि या प्रकृति चोर बंध का ही कारण है। इसे भलीभांति समझ कर इसका परित्याग करना, इसे ग्रहणन करना, यही बुद्धिमान पुरुष का परम कर्तव्य है।
नरक-स्थाना का तथा उनमें होने वाली वेदना का विस्तृत वर्णन भागे नरक प्रकरण में किया जायगा। यहां उसका सामान्य उल्लेख ही किया गया है। .. मूल:--सव्वं विलवित्रं गीग्रं, सव्वं नटुं विडंविध!
सब्बे प्राभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावहा ॥२२॥ छाया:- पिलपित गीत. सर्व नाध्यं विम्बितम् ।।
सारयामरणानि भासः, सर्व कामा न्वाहाः ॥ २२ ॥ शब्दार्थ:-सारे गीत विलाप के समान, समस्त नाटक-नृप विडम्बना रूप, और अब पाभरण भार रूप प्रतीत होत है। सब प्रकार के कामभोग दुःखदायी जान पड़ते हैं।