________________
कषाय वर्णन कर कष्ट भोगता है। नास्तिक के पतन की यह परम्परा यही समाप्त नहीं हो.जाती। उसे क्रमशः अन्यान्य अनेक दुःस्त्रों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उसका पतन होता ही चला जाता है। उसका दिद्गदर्शन शास्त्रकार स्वयं आगे कराते हैं। मूल:-तो पुट्ठी प्रायंकण, गिलाणो परितप्पड़ ।
पभीश्रो परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणो ॥२०॥ छोया:-ततः स्पष्ट पातकन, ग्लानः परितप्यते ।
प्रमीतः पर लोकात, कर्मानुप्रचारमनः॥२०॥ शब्दार्थः-तत्पश्चात् असाध्य रोगों से घिरा हुआ वह नास्तिक रोगी बन कर अत्यन्त संताप पाता है-पश्चाताप करता है और अपने कमों को देखकर-अपनी करतूतों का विचार करके परलोक से डरता है।
भाष्यः-पहले नास्तिक की अवस्था का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि वह मध-मांस और महिला में अतीव श्रासक्त बन जाता है। इस प्रकार की श्रासक्ति के मुख्य रूप से दो फल होते है-एक इहलौकिक फल कहलाता है और मृत्यु के पश्चात् होने वाला फल पारलौकिक कहलाता है।
नास्तिक मद्य, मांस एवं स्त्री आदि विषयक घोर आसक्ति से अपने शरीर का सत्यानाश करलेता है, अतएव वह विविध प्रकार की शारीरिक व्याधियों का शिकार बन जाता है। जब वह रुग्म हो जाता है और शरीर को क्षीण एवं दुर्यल बना डालता है, उससे असह्य दुःख भोगता है तब उसका नशा दूर होता है। उस समय उसकी मस्ती उतर जाता है। उसकी बुद्धि ठिकाने पाती है। और तभी उसकी अांखें खुलती हैं ? किन्तु 'फिर पछताये होत का, चिड़ियां चुग गई खेत ।' जय चिड़ियां खेत चुग चुकी तय पछताने से-सिर पटकने से क्या लाभ है उस समय का नास्तिक का पश्चाताप या संताप कुछ भी काम नहीं श्राता। पहले उसने अपनी करतृतों से जो स्थिति खड़ी करली है वह पश्चाताप से नहीं मिट सकती। उसे अनेक शारीरिक पीड़ाएँ सहन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
नास्तिक इधर शारीरिक कष्ट भुगतता है, उधर उसे परलोक का भय बेचैन बना डालता है। वह अपन किये हुए कर्मा का विचार कर करके जब यह सोचता है कि आगे इन फर्मो का फल मुझे भुगतना होगा, तो उसे शारीरिक वेदना के साथ घोर मानसिक वेदना भी सहनी पड़ती है। इस प्रकार दुहरी वेदना से वह छटपटाता है-विकल होता है, पर उसका कोई प्रतीकार रस समय नहीं हो सकता। उन भयाभक दुःस्त्रों को भोगे बिना वह छुटकारा नहीं पा सकता।
मूल:--सुत्रा मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई। ... वालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥२१॥