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__ काय वर्णन के महान् ध्येय की पूर्ति करने का प्रयत्न करना चाहिए।
कदाचित शरीर इतना सबल होता कि वह काल के प्रहार को सहन करलेता तो चिन्ता नहीं थी। फिर काल से डरने की कोई श्रावश्यकता न थी। पर ऐसा नहीं है। हाड़-मांस का यह पुतला अत्यन्त निर्वल है । काल का प्रहार इससे सहन न होगा । काल के एक ही झपट्टे में यह निकम्मा वन जायगा । श्रतएव देले निर्वल शरीर का भरोसा करके निश्चिन्त कैसे रहा जा सकता है ? जिस नौका में अनेक छिद्र हो गये हो, वह कबतक पानी पर तैरती रहेगी? वह किसी भी क्षण जल के तल पर पहुँच सकती है । इसी प्रकार यह शरीर किसी भी क्षण नष्ट विनष्ट हो सकता है ।।
अन्त में शास्त्रकार कहते हैं-'सारंडपक्खी व चरऽपमत्तो।' अर्थात्-इसलिए भारंड पक्षी की तरह प्रमाद रहित होकर विचरो । जैसे भारंड नामक पक्षी प्रतिक्षण सावधान रहता है, वह प्रमाद का सेवन नहीं करता, इसी प्रकार तुम भी. प्रमाद से सर्वथा रहित बनों । एक क्षण का प्रमाद् भी घोर अनर्थ उत्पन्न कर सकता है। मूल:-जे गिद्धे कामभोएसु, एगे कूडाय गच्छइ ।
'न मे दिटे परे लोए, चक्षुदिट्ठा इमा रई ॥१४॥ छायाः-यो गृद्धः कामभोगेपु, एकः कूटाय गच्छति।
न मया दृष्टः परलोकः चक्षुईष्टेयं रतिः ॥ ४॥ शब्दार्थः-जो कोई पुरुप काम-भोगों में आसक्त है, वह हिंसा तथा मृपावाद को प्राप्त होता है । वह कहने लगता है--परलोक मैंने देखा नहीं है, परन्तु सांसारिक सुख तो प्रत्यक्ष नजर आ रहे हैं।
भर्थात् परलोक संबंधी सुखों के लिए इस लोक के प्राप्त सुखों का त्याग क्यों किया जाय ?
भाष्य:-प्रथम अध्ययन में श्रात्मा का सनातनत्व सिद्ध किया जा चका है। जब प्रात्मा सनातन-नित्य है तो उसका कभी विनाश नहीं हो सकता । जय श्रात्म, का विनाश नहीं हो सकता और वर्तमान जीवन अल्पकाल पर्यन्त ही रहता है तो परलोक माने बिना काम नहीं चल सकता। श्रात्मा की एक अवस्था त्यागकर दूसरी अवस्था में जाना ही परलोक गमन कहलाता है । श्रात्मा की एक अवस्था स्थायी नहीं रहती, फिर भी आत्मा स्थायी रहता है शर्थात् वह दूसरी अवस्था को अवश्य ही अंगीकार करता है।
इस प्रकार परलोक तर्कसंगत होने पर भी कामी और भोगी जीव परलोक के विषय में उपेक्षा का भाव व्यक्त करते हैं । शास्त्रकार कहते हैं कि जो काम-भोग में गृडालक्त है, जो काम-भोग का परित्याग करने में अशक्त, जिनकी इन्द्रियां इतनी उच्चबत हो रही है कि वे यम-नियम के नियंत्रए में नही पा सकी. .