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कषाय वर्णन इल अल्प काल में प्रमाद का परित्याग करके धर्म की आराधना करनी चाहिए।
बुढ़ापा आने पर-जब इन्द्रियां शिथिल पड़ जाएँगी, शरीर कार्यक्षम नहीं रहेना, श्राय का अन्त निकट श्राजायगा तब संसार का कोई भी प्राणी शरण नहीं दे सकेगा। इस तथ्य को समझो, इस पर शान्ति के साथ विचार करो।
जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन प्रमाद ही प्रमाद में यापन कर दिया है, जिनके दिल में दया का कभी उद्वक नहीं हुश्रा-जो हिंसा में परायण रहे हैं, जिन्होंने इन्द्रिय विजय नहीं किया है, जो सावधान होकर क्रिया नहीं करते, व अन्त में किसका शरण लेंग? जैला कि अभी कहा है-धर्म ही एक मात्र शरण है और वह कषायों की उपशान्ति रूप है। जिन्होंने कषायों का दमन करके धर्म को ग्रहण नहीं किया, वे अन्त में किसी का शरण ब्रहण नहीं कर सकते । उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है। सघन वन में जैले मृग की सिंह से रक्षा कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार जीवन की अंतिम वेला में धर्म के सिवाय और कोई जीव की रक्षा नहीं कर सकता।
धर्म परलोक में सुख का साधन है। संसार का समस्त ऐश्वर्य, विपुल द्रव्य, विशाल परिवार और स्नेहीजन, सच यहां के यहीं रह जाते हैं । आगामी भव में उनमें से कोई सहायक नहीं होता। अतएव परलोक का सच्चा सखा, सुन प्रदान करने वाला एक मात्र सहारा धर्म है। धर्म का संग्रह करो । धर्म को अन्तरात्मा में जागृत करो। धर्म के लिए जीवन अर्पण कर दो। धर्म की रक्षा करो। अन्तरात्मा को निर्मल बनाओ। प्रमाद को हटाकर, भूतदया करो-विवेक के साथ धर्म की अंतरंगता को समझकर उसकी श्राराधना करो। मूलः-वित्तण ताणं न लभे पमत्ते,इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।
दीवप्पणद्वैव अणंतमोहे,नेयाउनं दट्टमदट्टमेव ॥१२॥ बाया:-वित्तेन नाणं न लभेत प्रमत्तः, अस्मिल्लोकेऽथवा परत्र ।
दीपरणप्ट इव अनन्त महिः, नैयायिकं दृष्ट्वाऽप्यदृष्ट्वेव ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:--प्रमादी पुरुष इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। जैसे दीपक के वुझ जानेपर न्याययुक्त मार्ग देखा हुआ भी न देखे के समान हो जाता है।
भाप्यः-संसार में अनेक मनुष्य ऐसे हैं जो धन को सर्वशक्तिमान माने बैठे । सोचते -'धन से कन्या नहीं हो सकता ! अगर हमारे पास पर्याप्त सम्पत्ति है तो रोग उत्पन्न होने पर हजारों वैद्य बुलाये जा सकते हैं। लास्त्रों की श्रीपधि खरीदी जा सकती है। फिर भय किस बात का है ? ' ऐसे लोगों की विचारधारा को भ्रमपूर्ण प्रदर्शित करते हुए शासकार कहते हैं-' वित्तण ताणं न लभे पमत्ते।' अर्थात कवाय श्रादि प्रमादों का सेवन करने वाला प्रमादी पुरुष धन से प्राण नहीं पा सकता। धन से न तो रोगों के उपशमन का नियम हैं, न घायु की वृद्धि हो सकती है । नष्ट श्रायु जय महाप्रयाण के लिए प्राणी को प्रेरित करती है, तब बहुमूल्य