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तेरहवां अध्याय मूल:-असंखयं जीविय मा पमापए,
जरोवणीयस्स हु णाथि ताणं । . एनं वियाणाहिजणे पमत्ते,
किं नु विहिंसा अजया गहिति ? ॥११॥ छाया:-प्रसंस्कृतं जीवितं मा प्रमादी, जरोपनीतस्य हि.नास्ति त्राणम् ।
___ एवं विजानीहि जनाः प्रमत्ताः, किं नु विहिना यता गृहीष्यन्ति ? ॥१३॥ शब्दार्थ:--यह जीवन असंस्कृत है-आयु टुट जाने पर फिर जुड़ नहीं सकती। इसलिए प्रमाद न करो। वृद्धावस्था में प्राप्त हुए पुरुषों को कोई भी शरणदाता नहीं हैउन्हें मृत्यु से बचाने में कोई भी पुरुष सामर्थयवान नहीं है । इसे भलीभाँति समझलो कि प्रमादी, हिंसक और अयतना स प्रवृत्ति करने वाले-अजितेन्द्रिय पुरुष किस की शरए लेंगे ? अर्थात् अन्त में उन्हें कोई शरण न दे सकेगा। .
• भाष्यः-कवायों का स्वरूप, उमसे होने वाले दुष्परिणाम तथा उनके उपशमन के उपायों का निरूपण करने के पश्चात् सूत्रकार यहां कषायों की उपशान्ति की प्राद• श्यकता प्रदर्शित करते हैं।
क्रोध कषाय की उपशान्ति रूप क्षमा है, मान कषाय की उपशान्ति होना मार्दव है, माया कक्षाय का अभाव होना प्रार्जव है, और लोभ कपाय का नष्ट होने से तय, त्याग, भाकिचिन्य, ब्रह्मचर्य आदि की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार विचार करने से प्रतीत होता है कि दस धर्मों का प्राविर्भाव कषाय के उपशम पर निर्भर है। अतएव कपायों का उपशम धर्म है और धर्म ही संसारी जीवों के लिए शरण-दाता है। . कहा सी है
धम्मो चवस्थ सत्ताणं, लरणं भवसायरे।
देवं धरुमं गुरुं चेव,धम्मत्थी य परिएखए । अर्थात् संसार रूपी ससुद्ध में, जीमों के लिए धर्म ही सरल है । धर्माधी पुरुष को देव, धर्म और गुरु की परीक्षा करना चाहिए। . ___ -जीवों को धर्म ही शरण है अर्थात् कषायों का उपशम ही उनकी रक्षा कर सकता है-अन्य कोई नहीं। इसी लिए कषायों के उपशल की अत्यन्त आवश्यकता है। यह आवश्यकता प्रदार्शित करते हुए सूनकार कहते हैं
· जीवन संस्कार-हीन है । जैसे फटा हुशा कागज गोंद से चिपक जाता है अथवा टूटा हुना घड़ा राल अरदि द्रव्यों से जुड़ जाता है, इस प्रकार जीवन टूट जाने 'पर अर्थात् श्रायु समाप्त हो जाने पर उसे जोड़ने वाली वस्तु संसार में नहीं है । मृत .
को जीवित करने की भी कोई औषधि संभव नहीं है । अतएव आयु की समाप्ति पर - मृत्यु के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं है । जव मृत्यु धूव है, निश्चित है तो, जीवन के.