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कषाय वर्णन प्राप्त होता है, उसके कारण क्रोधी पुरुष उन्हें बहिरा, अंधा, लूला आदि कहकर कष्ट पहुंचाता है।
इसके अतिरिक्त क्रोधी पुरुष उपशान्त हुए क्रोध को पुनः जागृत करता है। . वह ऐसी चेष्टा करता है जिससे शान्त हुश्रा ऋोध पुनः भड़क उठता है। . .
इस प्रकार के क्रोधी पुरुष की क्या दशा होती है ? इस का उल्लेख करते हुए सूत्रकार बतलाते हैं कि जैसे कोई अंधा पुरुष हाथ में डंडा लेकर चल पड़ता है, तो मार्ग में अनेक पशु प्रभृति के द्वारा उसे कष्ट उठाना पड़ता है। इसी प्रकार यह क्रोध करने वाला पापी जीव चतुर्गति रूप मार्ग में अनेक प्रकार के जन्म-मरण जन्य दुःख भोगता है। मुलः-जे प्रावि अप्पं वसुमंति मत्ता,
- संखाय वायं अपरिक्ख कुजा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता,
. . अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं ॥३॥ छाया:-याऽपि धारमानं वसुमानिति मत्वा, संख्याय वादमपरीचय कुर्यात् ।
तपसा वाऽहं सहित इति मत्वा, अन्यं जनं पश्यति विम्बभूतम् ॥३॥ शब्दार्थः-अपने आपको संयमकान मान करके, और ज्ञानी समझ करके, वस्तुतः परमार्थ को न जानता हुआ भी जो वादविवाद करता है, अथवा 'मैं तप से युक्त हूँतपस्वी हूँ' ऐसा मानता है वह अन्य जन को केवल परछाई मात्र-अपदार्थ समझता है ।
भाष्यः-क्रोध से होने वाली हानि का निरूपण करके यहां सूत्रकार मान कषाय का वर्सन करते हैं।
जो पुरुष अपने आपको चमान् अर्थात् संयम काला समझता है और अपने को ज्ञानी मान कर-वास्तक में परमार्थ का ज्ञान न होने पर भी वादविवाद करने के लिए तैयार हो जाता है, अथवा जो अपने को तपस्वी मान कर अन्य पुरुषों को विम्ब के समान-परछाई मात्र मानता है। ऐसा मानी पुरुष दुःख उठाता है। ..
प्रस्तुत गाथा में संयम, तप और ज्ञान के अभिमान का वर्णन किया गया है। संयम, तप आदि आत्मा के गुण हैं। अगर इनकी उत्कृष्ट मात्रा किसी को प्राप्त हो जाय तो भी उसे उनका अभिमान नहीं करना चाहिए । अभिमान करने से संयम और तप श्रादि गुणों की पवित्रता नष्ट हो जाती है और उन गुणों में कलुपता उत्पन्न हो जाती है। अभिमानी पुरुष का संयम और तप आत्म-शुद्धि का नहीं वरन् उसके रूपाय पोषण का कारण बन जाता है। अतएव उप्लसे आत्मा अधिक मलीन होती है। इसके अतिरिक्त अभिमानी पुरुय में अपने संयम, तप और ज्ञान के विषय में मद . उत्पन्न हो जाता है तब उसकी दृष्टि इतनी विकृत हो जाती है कि वह अल्प संयम