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भाषा-स्वरूप वर्णन किया है। उसका तात्पर्य यही है कि कुशीलसेवी पुरुष पशु के समान हेयोपादेय से विकल है। मूल:-श्राहच्च चंडालियं कटु, ननिरहविज कयाइ वि।
कडं कडत्ति भासेज्जा,अकडं णो कडेत्ति य ॥१३॥ छाया:- कदाचित् चाण्ढालिकं कृत्वा, न निनुवीत कदापि च ।
कृतं कृतमिति भापत, अकृतं नो कृतमिति च ॥ १३ ॥ शब्दार्थः--कदाचित् क्रोध से असत्य भाषण हो गया हो तो उससे कभी मुकरना नहीं चाहिए। किये हुए को किया हुआ कहना चाहिए और न किये को नहीं किया' कहना चाहिए।
' भाष्यः-क्रोध के श्रावेश में मनुष्य उन्मत्त हो जाता है । उस समय उसे उचित अनुचित का विचार नहीं रह जाता । उस अवस्था में यदि असत्य वचन निकल जाएँ तो प्राचार्य के सामने या गुरु के समक्ष अपना दोष छिपाना उचित नहीं है।
अगर छिपाना उचित नहीं है, तो क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि, असत्य भाषण या अन्य किसी दोप का सेवन किया हो तो 'मैंने यह दोष किया है। इस प्रकार स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए। अगर कोई दोष न किया हो तो उसके विषय में नहीं किया है ' ऐसा कह देना चाहिए।
असत्यभाषण और क्रोध आदि पाप विष के समान है । विष को ग्रहण न करना ही सर्वश्रेष्ठ है, अगर क्रोध आदि के आवेश में अथवा असावधानी में विप का लेवन हो जाय तो चिकित्सक के समक्ष स्पष्ट रूप से उसका लेसरकर लेना चाहिए। अगर ऐसा न किया गया तो जीवन की रक्षा नहीं हो सकती । इसी प्रकार पाप का सेवन न करना ही सर्वोत्तम है। यदि असावधानी श्रादि किसी कारण से सेवन हो गया हो तो चिकित्सक के समान प्राचार्य महाराज या गुरुदेव के समक्ष उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार करलेना चाहिए । ऐसा करने से ही संयम रूप जीवन की रक्षा हो सकती है।
. जिसके हृदय में शल्य विद्यमान रहता है वह कभी निराकुल नहीं रह सकता। यह कथन केवल द्रव्य शल्य के लिए ही सत्य नहीं है किन्तु भाव-शल्य के लिए भी उत्तना ही सत्य है।
अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जो भूल तो करते हैं, परन्तु श्रात्मबल का अभाव होने से उसे स्वीकार नहीं करते । वे जनता के सामने अपने श्राप को अभ्रान्त लिद्ध करना चाहते हैं, पर वास्तव में देखा जाय तो वे अपनी भूल न स्वीकार करने के कारण अत्यन्त भुलकड़ है और उनकी भूलों की परम्परा का शीघ्र ही अन्त नहीं श्रा सकता। उन्हें कभी-कभी एक भूल या अपराध छिपाने के लिए अनेक भूलें या अनेक