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लेश्या स्वरूप निरूपण
छाया:- कृष्णा नीला कापोता, तिस्रोऽप्येता श्रधर्मलेश्या: । एताभिस्तिसृभिरपि जीवः, दुर्गतिमुपपद्यते ॥ १४ ॥
शब्दार्थ:-कृष्ण, नील और कापोत, यह तीन अधर्मं लेश्याएं हैं। इन तीनों लेश्याओं से जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है ।
भाष्यः- - पूर्वोक्त छह लेश्याओं में प्रशस्त और अप्रशस्त लेश्याओं का विभाग यहां किया गया है। प्राथमिक तीन- कृष्ण नील और कापोत लेश्याएं अधर्म लेश्याएं · अथवा अप्रशस्तं लेश्याएं हैं, क्योंकि इन लेश्यात्रों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, लेश्याओं के छह विभाग स्थूल विभाग हैं। वस्तुतः इनमें से प्रत्येक लेश्या के परिणाम ( तीव्रता, मन्दता आदि रूप ) बहुत • और बहुत प्रकार के हैं । श्री प्रज्ञापना सूत्र में कहा है
" कराह लेस्सा णं भंते ! कतिविदं परिणामं परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा, नवविहं वा, सत्तावीसविहं वा, एक्कासीतिविहं वा, वेतेयालीसतचिह्नं वा, बहुयं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमइ, एवं जाव सुक्कलेस्ला ।"
- अर्थात् हे भगवन् ! कृष्ण लेश्या कितने प्रकार के परिणामों में परिणत हैं ? दे गौतम ! तीन प्रकार के, नौ प्रकार के, सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के, दो सौ तेतालीस प्रकार के बहुत और बहुत प्रकार के परिणामों में परिणत है । जैसे कृष्ण लेश्या के परिणाम बहुत हैं उसी प्रकार नील आदि शुक्ल लेश्या पर्यन्त सभी लेश्याओं के परिणाम समझना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि कृष्ण लेश्या जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार के परिणाम वाली है । किन्तु जघन्य परिणाम के भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम हैं, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम के भी जघन्य आदि तीन परिणाम हैं । इस प्रकार एक-एक परिणाम के तीन-तीन भेद होने से कृष्ण लेश्या के नौ परिगाम होते हैं । यह नौ परिणाम भी अंतिम नहीं हैं और उनमें भी जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेद होते हैं । अतएव नौ परिणामों का जघन्य श्रादि तीन भेदों से गुणाकार करने पर कृष्ण लेश्या के सत्ताईस परिणाम हो जाते हैं । इसी प्रकार आगे भी गुणाकार करते चलने से इक्यासी, दो सौ तेतालीस तथा बहुत और बहुत प्रकार के. परिणाम सिद्ध हो जाते हैं ।
नील, कापोत श्रादि अन्य समस्त लेश्याओं के परिणामों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। लेश्याओं के जितने परिणाम-भेद हैं, उतने ही भेद उनकी प्रशस्तता एवं प्रशस्तता अथवा धर्म्यता एवं अधर्म्यता के भी समझने चाहिए । श्याओं की इस मशस्तता - प्रशस्तता के तारतम्य के ही अनुसार दुर्गति-प्राप्ति, सुगति प्राप्ति रूप फल में भी तारतम्य हो जाता है ।
कहीं-कहीं 'अम्मले सानो' के स्थान पर 'हमलेसाओ' पाठ भी देखा जाता है । उसका अर्थ 'अधम लेश्याएँ' ऐसा होता है, श्रतएव वह पाठ भी निर्वाध है ।