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वारहवां अध्याय
[ ४६१ । मूलः-तेऊ पम्हा सुक्का, तिरिण वि एयानो धम्मलेसानो।
एयाहिं तिहिं वि जीवो, सुग्गइं उववजइ ॥ १५ ॥ छाया:-तेजः पद्मा शुक्ला, तिस्सोऽप्येता धर्मलेश्याः ।
__एताभिस्तस्तिसृभिरपि जीवः, सुगतिमुपपद्यते ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, और शुक्ल लेश्या, यह तीनों धर्म लेश्याएँ हैं। इन तीनों लेश्याओं से जीव सुगति में उत्पन्न होता है।
भाष्यः-पूर्व गाथा में अधर्म लेश्याओं का निरूपण किया गया था । यहाँ अन्त की तीन लेश्याओं को धर्म लेश्या बतलाया गया है । तेजी लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लश्या, शुभ, शुभतर और शुभतम परिणामों से युक्त होने के कारण धर्म लेश्याएँ हैं और इनसे सद्गति का लाभ होता है।
आत्महितैषी पुरुषों को श्रादि की तीन अधर्म लेश्याओं से दूर रह कर धर्मलेश्याओं में ही विचारना चाहिए और ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए, जिससे सब प्रकार को लेश्याओं से मुक्ति प्राप्त हो और अलेश्य अवस्था प्राप्त हो जाय ।
धर्म लेश्याओं के भी बहु और बहुविध अवान्तर परिणाम हैं, जैसा कि पूर्व गाथा में कहा जा चुका है। मूल:-अन्तमुहूत्तम्मि गए, अन्तमुहूत्तम्मि सेसए चेव ।
लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छति परलोयं ॥१६॥ छाया:--अन्तर्मुहूत्तै गते, अन्तमुहूर्ते शेपे चर्व ।
लेश्याभिः परिणताभिः, जीवा गच्छंति परलोकम् ॥ १६ ॥ शब्दार्थः-परिणत हुई लेश्याओं का अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाने पर अथवा अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर ही जीव परलोक में जाते हैं।
भाप्यः-किसी भी लेश्या को उत्पन्न हुए जव अन्तर्मुहर्त व्यतीत हो जाता है अथवा लेश्या का अन्त होने में जव अन्तर्मुहर्त शेष रहता है, तभी जीव परलोक के लिए गमन करता है। मनुप्यों और तिर्यञ्चों की लेश्या जीवन पर्यन्त एक ही नहीं रहती। वह कारण पाकर बदलती रहती है । जो मनुष्य या तिर्यञ्च मरणोन्मुग्न होता है, उसकी मृत्यु अन्तकालीन ऐसी लेश्या में ही हो सकती है, जिस लेश्या के साथ उसका संबंध कम से कम अन्तर्मुहर्त पर्यन्त रह चुका हो । कोई भी जीव नवीन लेश्या की उत्पत्ति के प्रथम समय में ही नहीं मरता किन्तु अब उसकी लेश्या परिणत हो जाती है। स्थिर हो जाती है, तभी वह पुरातन शरीर का परित्याग करफे नृतन शरीर ग्रहण करने के लिए गमन करता है । लेश्या के परिणत होने में कम से कम अन्तर्मुहर्त लग जाता है, इसी कारण यहाँ यह बतलाया गया है कि लेश्या का यन्त. मुहर्त व्यतीत हो जाने पर ही जीव परलोक जा सकता है।