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भाषा-स्वरूप वर्णन मूल:-जहा सुणी पूइकरणी, निक्कसिजई सव्वसो ।
एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरि निकसिज्जइ ॥ ११ ॥ __छाया:-यथा शुनी पूर्तिकर्णी, निःकास्यते सर्वतः। ..
. एवं दुश्शीलः प्रत्यनीका मुखरिन् निःकास्यते ॥ १॥ शब्दार्थः-जैसे सड़े-गले कान वाली कुतिया सब जगहों से निकाली जाती है, इसी प्रकार दुष्ट शील वाला, गुरु एवं धर्म के विरुद्ध व्यवहार करने वाला और वृथा बड़बड़ाने वाला व्यक्ति भी अपने गच्छ से बाहर निकाल दिया जाता है।
- भाष्यः-गाथा का भाव स्पष्ट है। जिस कुतिया के कान सड़ जाते हैं, जिसके कानों में कृमि-कुल उत्पन्न हो जाता है और रुधिर आदि प्रवाहित होता है, वह जिसके गृहमें प्रवेश करती है वही उसे तत्काल, घृणापूर्वक, बाहर भगा देता है । क्षण भर भी कोई अपने घरमें उसे स्थान नहीं देता। इसी प्रकार जो साधु दुःशील होता है, अपने गुरु और धर्म के विरुद्ध आचरण करता है तथा विवेक से शून्य होकर अंटसंट बोलता रहता है, वह जिस किसी गच्छ या कुल में जाता है, वहीं से बाहर कर दिया जाता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी प्राचार्य अपने कुल में स्थान नहीं देता।
___ इसी प्रकार अन्य पुरुष भी इन दुर्गुणों के कारण सर्वत्र तिरस्कार का पान बनता है और उसे कोई अपने समूह में स्थान नहीं देना चाहता । अतएव इन दोषों का त्याग करना परमावश्यक है। मूलः-कणकुंडगं चइत्ताणं, विटुं भुंजइ सूयरे । . एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमइ मिए ॥ १२ ॥ छाया:-कणकुण्डकं त्यक्त्वा, विष्टां भूनते शूकरः ।
एवं शीलं त्यक्त्वां, दुस्सीलं रमते मृगः ॥ १२ ॥ शब्दार्थः-जैसे शूकर धान्य से भरे हुए कूडे (पान) को छोड़ेकर विष्टा भक्षण करता है, इसी प्रकार मृग के समान मूर्ख मनुष्य शील का परित्याग करके दुःशील होकर आनन्द का अनुभव करता है । __ . भाष्य-सूत्रकार ने यहां शील का महत्त्व प्रकट करते हुए कुशील की निन्दा
जैसे शूकर के सामने धान्य से परिपूर्ण पात्र राना जाय तो भी वह उसे रुचिकर नहीं होता। शूकर उसे त्याग कर विष्टा को ही भक्षण करता है। इसी प्रकार शीलको त्याग कर मूर्स पुरुप कुशील का ही सेवन करता है और उसी में आनन्द मानता है। सूत्रकार ने यहां कशील को विष्टा की उपमा दी है अतएव कुशलिसेवी शुकर के समान सिद्ध हो जाता है।
विष्टा और कुशील में निम्न लिखित सादृश्य हैं