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श्यारहवां अध्याय
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कोमल, मधुर एवं हितकर वचनों का प्रयोग करने वाला पुरुष ही वाणी का स्वामी बनता है, विवेक कहलाता है और चारित्र का शाराधक होकर ग्राम कल्याण करता है ।
मूल:- श्रवण्णवायं च परंमुहस्त, पच्चrai पडिणीयं च भासं । प्रहारिणं पियकारिणं च,
आसं न भासेज सया स पुजो ॥ १० ॥
छाया:- श्रवर्णवादं च पराङ्मुखस्य प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम् । धारिणमप्रियकारिणीं च, भाषां न भाषेत् सदा स पूज्यः ॥ १० ॥
शब्दार्थ:-- किसी मनुष्य के परोक्ष में या प्रत्यक्ष में अर्थात् उपस्थिति में या अनुपस्थिति में, उसकी निन्दा रूप भाषा कदापि नहीं बोलना चाहिए । इसी प्रकार किसी का अपकार करने वाली, भविष्यकाल संबंधी निश्चयं करने वाली और अप्रिय प्रतीत होने वाली भाषा भी नहीं बोलना चाहिए। जो ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करता वह पूजनीय है ।
भाग्य-भाषा-प्रयोग संबंधी अन्य आवश्यक विषयों का उल्लेख करने के लिए खूत्रकार ने यह गाथा कही है । भाषा का प्रयोग करते समय निम्नलिखित नियमों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
(९) किसी पुरुष की मौजूदगी में या गैर मौजूदगी में किसी भी अवस्था में, निन्दा न की जाए ।
(२) सुख से ऐसा एक भी शब्द न निकाला जाय जिससे कि किसी पुरुष का कोई अपकार होता हो या हो सकता हो ।
(३) भविष्यकाल में होने योग्य किसी कार्य के संबंध निश्चयात्मक वाणी का प्रयोग न किया जाय । क्योंकि जीवन का विश्वास नहीं किया जा सकता । श्रदारिक शरीर क्षण चिनश्वर है । वह कब साथ छोड़ देगा, सो नहीं जाना जा सकता । ऐसी दशा में भविष्य विषयक निश्चय प्रकट करना उचित नहीं है, इससे असत्य भाषण का दोष लगता है और अप्रतीति भी हो सकती है ।
(४) ऐसी भाषा का व्यवहार न किया जाय जो श्रोता को अप्रिय प्रतीत हो । प्रिय भाषा से श्रोतों का परिपूर्ण श्राकर्षण वक्ला की और नहीं होता । श्रतएव श्रप्रिय वचन प्रायः समास हो जाते हैं और श्रोता को मानसिक कष्ट भी पहुंचाते हैं ।
इन श्रावश्यक नियमों तथा पूर्वोक्त नियमों का सदा पालन करने वाला महापुरुष आदरणीय होता है ।