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भाषा-स्वरूप वर्णन
धर्म, अधर्म, श्राकाश और काल यह छह द्रव्य हैं । यह द्रव्य अनादिकालीन हैं और अनन्तकाल तक स्थिर रहेगें । श्रतएव लोक भी अनादि श्रनन्त 1
पर्यायों की दृष्टि से श्रवश्य उसकी उत्पत्ति भी होती है और नाश भी होता है, परन्तु उस उत्पत्ति और विनाश के लिए न तो ब्रह्मा की आवश्यकता है, न स्वयंभू की । उसके लिए ईश्वर की भी अपेक्षा नहीं है और न देव की ही । यह जड़ और चेतन पदार्थ स्वयं किया करते हैं और अधिकांश में हम स्वयं ऐसा अनुभव कर सकते हैं ।
इस तथ्य को न समझकर ही लोग अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाते हैं और नाना प्रकार के मिथ्या सिद्धान्तों का प्रणयन करते हैं । वस्तुतः लोक द्रव्य दृष्टि से विनाशी नहीं है - श्रविनश्वर है और जब उसका कभी विनाश नहीं होता तो उत्पाद की कथा ही क्या है ?
सूत्रकार ने लोक को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अविनाशी कहा है, यद्यपि पर्यायार्थिक नय से उसका प्रतिक्षण उत्पाद और विनाश होता रहता है | किन्तु यह उत्पाद और विनाश, जैसा कि पहले कहा गया है, मूलं वस्तुओं का - द्रव्यों कानहीं समझना चाहिए। कोई भी सत् पदार्थ कभी असत् नहीं हो सकता और असत् कभी सत् नहीं बन सकता । श्रतएव अन्य लोगों की सृष्टि और प्रलय की कल्पना न है और उत्पाद एवं विनाश का सिद्धान्त भिन्न है ।
विणासी कयाइ वि ' यहां 'विणासी ' में 'वि' ( विशेष रूप से ) उपसर्ग है । विशेष रूप से अर्थात् निरन्वय रूप से - समूल नाश होने को यहां विनाश कहा गया है । तात्पर्य यह है कि लोक कभी समूल नष्ट नहीं होता, सत् से श्रसत् नहीं वन जाता । पर्यायदृष्टि से, पूर्व पर्याय का नाश होने पर भी विनाश अर्थात् सर्वथा नाश कदापि नहीं हो सकता है ।
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• उल्लिखित विवेचन से लोक की ईश्वर श्रादि के द्वारा सृष्टि मानना और प्रलय की कल्पना करना मृषावाद है, यह सिद्ध है ।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन- ग्यारहवां अध्याय समाप्तम्
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