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चारहवां अध्याय
[ ४५५ 1 क्षुद्रता भरी हो, जो हिताहित का विचार किये बिना ही कार्य में प्रवृत्ति करने वाला हो, इस प्रकार इन दोषों से युक्त प्राणी को नील लेश्या चाला समझना चाहिए।
नील लेश्या नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य, भवनवासी, और वान-व्यन्तर देवों को होती है। मूलः-वके वंकसमायरे, नियडिल्ले अणुज्जुए।
पलिउचंग प्रोवहिए, मिच्छदिट्ठी प्रणारिए ॥ ६॥ उप्फालग दुट्टवाई य, तेणे प्रावि य मच्छरी। एष जोग समाउत्तो, काऊलेसं तु परिणमे ॥७॥ छाया:-वक्रः वक्रसमाचारः, निकृतिमाननृजुकः।
पत्कुिञ्चक औपधिकः, मिथ्याप्टरनार्यः ॥ ६ ॥ उत्फालक-दुष्टवादी च, स्तेननापि च मस्प्तरी।
एतयोग समायुक्तः, कापोतलेश्यां तु परिणमेत् ॥ ७॥ शब्दार्थः-वक, वक्राचारी, मायावी, सरलता से रहित, अपने दोपों को छिपाने चाला, कपटी, मिथ्याष्टि, दुःखों का उत्पादक ऐसा दुष्ट वचन को बोलने वाला अनार्य, चोर, मात्सर्य रखनेवाला, इस प्रकार के दोषों से युक्त पुरुप कापोत लेश्या वाला होता है।
भाष्यः-नील लेश्या का निरूपण करने के अनन्तर क्रमप्राप्त कापोत लेश्या का स्वरूप यहां बतलाया गया है।
जिसकी वाणी में वक्रता होती है, जिसके आचरण में वक्रता होती है, जिसका व्यापार इतना गूढ़ हो कि दूसरे को उसका पता न चल सके, जिसके हृदय में सरलता न हो, अपने दोपों को दूर करने के बदले जो उन्हें छिपाने की चिन्ता करता रहता हो, चात-बात में जो कपट का सेवन करता हो, मिथ्या दृष्टि वाला हो, अनार्य हो अर्थात् अनार्य पुरुषों के योग्य जिसका प्राचार-विचार हो, जो दूसरे के मर्म को छेदने वाले वचनों का प्रयोग करता हो, अर्थात् जो अपने बचनों से दूसरों को गहरी और भीतरी चोट पहुंचाता हो, जो चोर हो, मत्सर भाव का धारक हो, इस प्रकार इन भावों को धारण करने वाला पुरुप कापीत लेश्या से युक्त समझना चाहिए।
___कापोत लेश्या उन पूर्वोक्त सभी नारकी, तियेच श्रादि जीवों को होती है, जिन्हें नील लेश्या होती है। मूलः-नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ।
विणीय विणए दंते, जोगवं उवहाणवं ॥ ८॥
पियधम्मे दढधम्मे, अवजभीरू हिएसए। . एयजोग. समाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे ॥ ॥ .