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यारहवां अध्याय
TET जानता है, सर्वशक्तिमान् होने के कारण वह सभी कुछ कर सकता है, फिर पाप करने से जीवों को रोकता क्यों नहीं है ? क्या कोई भी पिता, अपने पुत्र को जान बूझ कर और रोकने का सामर्थ्य होने पर भी कुए में पढ़ने देता है ? वह परम पिता ईश्वर कैंसा करुणाशील है जो पहले तो जान-बूझ कर पाप के साधन प्रस्तुत करता है, पाप - बुद्धि उत्पन्न करता है, फिर पाप में प्रवृत्त होने देता है— रोकने की शक्ति होने पर भी सेकता नहीं औौर टुकुर-टुकुर देखा करता है, अन्त में पाप का दंड देने के लिए तैयार हो जाता है ! इस प्रकार का निर्दयतापूर्ण व्यवहार करने वाला पुरुष परम पिता और दयाशील कहा जाय तो क्रूर र शत्रु किसे कहेगें ! इस कथन से यह स्पष्ट है कि या तो ईश्वर को स्वतंत्र नहीं स्वीकार करना चाहिए, या फिर उसकी दयालुता, सर्वशक्तिमत्ता घ्यादि गुणों को तिलांजलि देनी चाहिए ।
ईश्वर को सर्वज्ञ मानना भी उचित नहीं प्रतीत होता । ईश्वर अगर सर्वज्ञ होता और भूतकाल तथा भविष्यकाल की समस्त घटनाओं को तालता तो वह ऐसे प्राणियों की रचना कदापि न करता, जिनका उसे बाद में संहार करना पड़ता है, या जिनका निग्रह करने के लिए शूकर आदि के रूप में अवतरित होना पड़ता है । इसके अतिरिक्त ईश्वर-विरोधी मनुष्यों की भी वह सृष्टि न करता । ऐसे प्राणियों की उत्पत्ति यह सूचित करती है कि ईश्वर सर्वक्ष नहीं है अथवा उसे यह अभीष्ट है कि जगत् में अरे कर्तृत्व का विरोध किया जाय ! इस प्रकार ईश्वर की सर्वेक्षता सिद्ध नहीं होती ।
सर्वज्ञता इतनी सूक्ष्म वस्तु है कि हम दूसरे की सर्वक्षता अपने प्रत्यक्ष से जानने में सर्वथा असमर्थ हैं। कोई भी मनुष्य, दूसरे के ज्ञान का परिमाण प्रत्यक्ष से नहीं जान सकता । अतएव ईश्वर की सर्वज्ञता भी प्रत्यक्ष से नहीं जानी जा सकती ।
अगर अनुमान प्रमाण से ईश्वर की सर्वशता को जानना चाहें तो वह भी श्र. भव है । अनुमान से वही वस्तु जानी जाती है, जिसका श्रविनाभावी साधन निश्चित किया जा चुका है। अशि के अविनाभावी ( श्राग के बिना कदापि न होने वाले ) साधन धूम से अग्नि का निश्चय हो सकता है । परन्तु ईश्वर की सर्वक्षता के विना न होने वाली कोई भी वस्तु हमारे सामने नहीं है, जिससे ( अग्नि की भांति ) उस की सर्वक्षता का अनुमान किया जाय ।
अब एक आगम प्रमाण रद्द जाता है । श्रागम से श्रागम के वक्ता पुरुष के ज्ञान का पता चल जाता हैं, इसलिए कर्त्ता वादियों के आगम से उनका ईश्वर सर्व सिद्ध होता है या नहीं. इसकी परीक्षा करना श्रावश्यक है। अगर आगम ईश्वर की सर्वशता सिद्ध करता है तो वह किस का रचा हुआ है-ईश्वर का ही रखा हुआ है या अन्य किसी पुरुष का ? अगर ईश्वर कृत यागम ही ईश्वर की सर्वव्रता का साधक है, तब तो ईश्वर की महत्ता समाप्त हो जाती है। कोई भी महापुरुष अपने मुँह मिया मिठ्ठु नहीं बनता। इसके अतिरिक्त, ईश्वर आगम का प्रणेता नहीं हो सकता। आगन शब्द-स्वरूप है शब्द तालु, कंठ, ओट, यादि स्थानों से उत्पन्न होते हैं और तालु