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भाषा-स्वरूप वर्णन मक्खियां नहीं हैं । इसी कारण सब जगह एक सरीखे छत्ते देखे जाते हैं। तो घड़े को बनाने वाला भी कुंभार न मानकर ईश्वर ही मान लीजिए | कपड़ा बनाने वाला भी ईश्वर ही है, जुलाहा नहीं । इस प्रकार भले-बुरे सभी कार्यों का कर्ता एक मात्र ईश्वर ही ठहरेगा। फिर समस्त लोक-व्यवहार ही असंगत सिद्ध होंगे। किसी भी कार्य के लिए किसी भी व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकेगा । इस प्रकार उसकी एकता सिद्ध नहीं होती।
ईश्वर को व्यापक मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । यदि ईश्वर शरीर से व्यापक है अर्थात् उसका शरीर समस्त लोक में व्याप्त है तब तो अन्य पदार्थों को स्थान ही नहीं मिलना चाहिए । सारा संसार ईश्वर के शरीर से ही खचाखच भर जायगा।
ईश्वर को व्यापक न माना जाय तो वह विभिन्न स्थानों और सभिन्न दिशाओं संबंधी कार्य एक साथ नहीं कर सकेगा, यह तर्क भी ठीक नहीं है कि ईश्वर अपने शरीर से कार्य करता है या संकल्प मात्र से ? अगर शरीर से संसार की रचना करता है तव तो संसार को कभी पूर्ण रूपसे बना नहीं पाएगा । और यदि संकला से ही रचना करता है तो व्यापक मानने की अावश्यकता नहीं रहती। एक जगह स्थित होकर के भी संकल्प के द्वारा समस्त विश्व की रचना कर सकता है।
शरीर से व्यापक मानने से और भी अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं । यथाव्यापक होने से उसका शरीर नरक श्रादि दुःखपूर्ण स्थानों में तथा अशुचिमय पदार्थों में भी रहेगा और इससे. ईश्वर की विशुद्धता एवं आनन्दरूपता में व्याघात पड़ेगा।
ईश्वर को शरीर से नहीं किन्तु शान से व्यापक माना जाय तो ठीक है, पर आपके आगम से विरोध अवश्य. श्रावेगा। श्रापके पागम में उसे शरीर से व्यापक माना गया है। अतएव न तो श्राप शरीर की अपेक्षा व्यापक मान सकते हैं और न ज्ञान की अपेक्षा ही।
श्रापका माना हुश्रा ईश्वर यदि स्वतंत्र है, अपनी इच्छा के अनुसार जगत् का निर्माण करता है, तो उसने संसार में दुःख का निर्माण क्यों किया है ? एकान्त सुख. मय संसार की रचना क्यों नहीं की ? श्राप उसे दयालु स्वीकार करते हैं,फिर संसार में दुःखों का अस्तित्व क्यों होना चाहिए? अगर यह कहा जाय कि ईश्वर, प्राणियों द्वारा उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुन दुःख का भोग कराता है। जिन्होंने पूर्व जन्म में पापं किये हैं उन्हें दुःख रूप फल देना आवश्यक है । तो ईश्वर स्वतंत्र नहीं ठहरता। वह जीव के कर्मों के अधीन है । जैसे कर्म होंगे, वैसा ही फल देने के लिए उसे वाध्य होना पड़ेगा। वह अपनी इच्छा के अनुसार फल नहीं दे सकता। .
. इसके अतिरिक्त ईश्वर करुणाशील है और सर्वशक्तिसम्पन्न भी है, ऐसा प्राय स्वीकार करते हैं। तब वह जीवों को पाप में प्रवृत्त क्यों होने देता है ? पार करने की वृद्धि को ही वह क्यों नहीं नष्ट कर देता? सर्वश होने के कारण वह सब कुछ