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नवां अध्याय
[ ३६५ ] (१२) शान्त हुए क्लेश को फिर चेताना अलमाधि दोष है।
(१३) कालिक तथा उत्कालिक सूत्रों के पठन के समय का ध्यान न रखते हुए चर्जित काल में पढ़ना तथा चौंतीस प्रकार के असज्झाय में सज्झाय ( स्वाध्याय ) करना असमाधि दोष है।
(१४) सचित्त रज से भरे हुए पैरों को रजोहरण से प्रमार्जन किये बिना ही आसन पर बैठना तथा गृहस्थ के सचित्त जल आदि से युक्त हाथों से आहार लेना असमाधि दोष है।
(१५) एक प्रहर रात्रि व्यतीत होने से सूर्योदय तक तीन आवाज से बोलना असमाधि दोष है।
(१६) संघ में अनेकता फैलाना, संगठन को तोड़ना तथा मृत्युजनक क्लेश आदि उत्पन्न करना अलमाधि दोष है।
___ (१७) कटुक वचनों का प्रयोग करना, सदा झुंझला कर बोलना, किसी का तिरस्कार करना असमाधि दोष है।
__ (१८) स्वयं चिन्ता, खेद आदि करना और दूसरे को चिन्तित या खिन्न करना असमाधि दोष है।
(१६) नवकारसी श्रादि तपस्या न करता हुआ, सुबह से शाम तक अनेक बार खाना असमाधि दोष है ।
(२०) एषणा बिना ही आहार-पानी लेना असमाधि दोष है।
संयम की साधना के लिए इन दोषों का परित्याग करना आवश्यक है। इनके सेवन ले संयम दृषित होता है । यह दोष उपलक्षण मात्र हैं। इनसे शास्त्रों से प्रतिपादित सवल दोष आदि दोषों को भी समझकर त्याग करना चाहिए । आचारांग आदि में प्ररूपित अन्यान्य साधु के प्राचरण का भी प्राचार्य सम्मंत गुणों में समावेश करके साधु को अनुष्ठान करना चाहिए ।
___ साधु को नित्य अपूर्व ज्ञान-ध्यान की वृद्धि करते रहना चाहिए और वैराग्यवर्द्धन के निमित्त जगत् के एवं शरीर के स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए । इस प्रकार जिस उत्कट भावना के साथ दीक्षा ग्रहण की है वही उत्कट भावना चनाये रखना चाहिए। उसमें तनिक भी न्यूनता नहीं थाने देना चाहिए। ऐसा करने वाले मुनि शीघ्र ही सिद्ध, वुद्ध एवं मुक्त हो जाते हैं।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-नववा अध्याय समाप्तम्