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दसवां अध्याय
[ ३७६ ] (६ जैसे मनुष्य के शरीर की अस्थियां कठोर होने पर भी सजीव हैं, उसी प्रकार पत्थर आदि कठोर होने पर भी सजीव हैं।
तात्पर्य यह है कि बिना चेतना के कोई भी शरीर बढ़ नहीं सकता, और पर्वत नादि बढ़ते देखे जाते हैं, इसलिए उनमें जीव का अस्तित्व अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है।
जल में चेतना की सिद्धि के लिए इस प्रकार युक्तियां समझना चाहिए
(१) जैसे अंडे में रहा हुआ प्रवाही रस पंचेन्द्रिय जीव है, उसी प्रकार प्रवाही पानी भी जीवों का पिण्ड है।
(२) मनुष्य और तिर्यच भी गर्भ अवस्था के प्रारम्भ में तरल होते हैं, इसी भकार जल तरल होने पर भी सजीव है।
(३) जैसे शीतकाल में मनुष्य के मुख से भाफ निकलती है, उसी प्रकार प श्रादि के जल में से भी वाष्प निकलती देखी जाती है।
(४) जैसे शीतकाल में मनुष्य का सजीव शरीर गर्म रहता है, उसी प्रकार जल् . ली गर्म रहता है।
(५) ग्रीष्मकाल में जैसे मनुष्य-शरीर ठंडा रहता है, उसी प्रकार जल भी ठंडा रहता है।
(६) जैसे मनुष्य की प्रकृति में सर्दी और गर्मी दोनों हैं, उसी प्रकार जल की प्रकृति में भी सर्दी-गर्मी दोनों गुण हैं।
(७) जैसे मनुष्य का शरीर तीव शीत के कारण अकड़ जाता है, उसी प्रकार जलकाय के जीवों का शरीर-पानी-भी अकड़ कर बर्फ बन जाता है।
(८) जैसे मनुष्य का शरीर नौ महीने तक गर्भ में परिपक्व होता है, अपरिपक्व अवस्था में गर्भपात हो जाता है, उसी प्रकार पानी छह मास तक बादलों में रहकर परिपक्व होता है तो वर्षा के रूप में पढ़ता है, अन्यथा अपरिपक्व अवस्था में भोले के रूप में गिर जाता है।
__ मनुष्य के साथ इतना सादृश्य जल में जीव की सत्ता सिद्ध करता है। इसी शकार अग्निकाय में भी जीव का अस्तित्व सिद्ध होता है। वह इस तरह
(१) जैसे ज्वर से जलते हुए शरीर में जीव रहसकता है, उसी भांति उप्रण अग्नि में मी जीव रह सकते हैं।
(२) जैसे मृत्यु होने पर मनुष्य का शरीर ठंडा पड़ जाता है, उसी प्रकार अग्नि बुझ जाने पर ठंडी पड़ जाती हैं।
(३) जैसे जुगनू के शरीर में प्रकाश है,उसी प्रकार अग्नि के जीचों में प्रकाश है। ___ (४) जैसे मनुष्य गति शील है, उसी प्रकार अग्नि भी ऊपर की भोर गति करती है।