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प्रमाद-परिहार (५) जैसे: मनुष्य, पशु पक्षी आदि जीव-जन्तु वायु से जीवित रहते हैं उसी प्रकार अग्नि भी वायु से जीवित रहती है। थोड़ी देर हवा न मिलने से जैसे मनुष्य श्रादि प्राणी मर जाते हैं, उसी प्रकार अग्नि भी नष्ट हो जाती है।
— (६) जैसे मनुष्य प्राणवायु ( ऑक्सीजन ) ग्रहण करता है और विष वायु (कार्बन ) बाहर निकालता है, उसी प्रकार अग्नि भी प्राणवायु ग्रहण कर विषवायु का परित्याग करती है।
(७) जैले कोलो तक फैले हुए मारवाड़ के रेगिस्तान में, विना पानी के, तीत्र उष्णता में भी चूहे जीवित रह सकते हैं, और जैसे फिनिक्ल पक्षी अग्नि में गिर-कर नव-जीवन प्राप्त करता है, उसी प्रकार अग्नि के जीव, उष्ण अग्नि में जीवित रह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जो जीव जहां उत्पन्न होकर निरंतर निवास करता है, उसके लिए वहां की प्राकृतिक शीत-उष्णता या वातावरण बाधक नहीं होता। हिमालय की भयंकर हिम में हम लोग कुछ क्षणों से अधिक जीवित नहीं रह सकते, परन्तु वहां उत्पन्न होने वाले पशु-पक्षी आदि जीवधारी वहीं अपना सम्पूर्ण जीवन सकुशल व्यतीत करते हैं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। इससे यह समझा जा सकता है कि अग्नि यद्यपि अत्यन्त उष्ण वस्तु है, फिर भी उसमें अग्निकाय के जीव रह सकते हैं। जैसे नीम हमें कटुक प्रतीत होता है पर ऊँट गन्ने से भी अधिक मधुर अनुभव करता है, जो वस्तु हमारे लिए कटक रस से व्याप्त है वही उसके लिए माधुर्य का भंडार है, इसी प्रकार जो स्पर्श हमें उष्ण प्रतीत होता है वहीं दूसरी जाति के जीवों को उपए प्रतीत न हो, यह बहुत संभव है जो बात रस में देखी जाती है वह स्पर्श में भी हो सकती है। इन युक्तियों से अग्निकाय के जीवों की सत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।
वायुकाय के जीवों का अस्तित्व इस प्रकार लमझना चाहिए:--- (१) जैसे मनुष्य आदि प्राणी चलते हैं, उसी प्रकार हवा भी चलती रहती है। (२) हवा अपने में संकोच और विस्तार कर सकती है।
(३) वायु गाय के समान, बिना किसी से प्रेरित हुए ही अनियमित रूप से इधर उधर घूमती है।
इन.प्रमाणों से वायु में भी चेतना का सदुभाव जाना जा सकता है । यह पांचों प्रकार के जीव स्थावर काय कहलाते हैं। इनके पांच इन्द्रियों में से केवल मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है। यही कारण है कि इनकी चेतना स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं होती
और इसी कारण साधारण जनता इनकी सजीवता को स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाती। तथापि ज्ञानी जनों ने अपनी उन अनुभूति और तीक्ष्ण दृष्टि से उनमें चेतना के दर्शन
: जैसे वनस्पतिकाय में जीव को सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक साधन श्राविष्कृत हो सके हैं, उसी प्रकार पृथ्वी आदि के जीवों का भी अस्तित्व प्रत्यक्ष हो सकने की संभावना की जा सकती है।