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दसवां अध्याय
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तात्पर्य यह है कि प्रत्येक साधु को अपने स्वरूप का विचार करना चाहिए कि मैंने विषय-काम-भोग का सर्वथा त्याग किया है और मैं संयम रूप सन्मार्ग पर - जिससे मुक्ति का लाभ होता है- श्रारूढ़ हुआ हूं और उस मार्ग पर विशुद्धत्ता के साथ अग्रसर हो रहा हूं, ऐसी अवस्था में मुझे प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
मूल :- प्रबले जह मार बाहरा, मा मग्गे विसमेऽवगाहिया । पच्छा पच्छातावए, समयं गोयम ! मा पमायए २७
छाया:- प्रचलो यथा भारवाहकः, मा मार्ग विषमभच गाह्य । पश्चात् पश्चादनुताप्यते, समयं गोतस् ! मा प्रमादीः ॥ २७ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम ! जैसे निर्बल भार वाहक ( बोझ ढोने वाला ) विपम मार्ग में प्रवेश करके फिर पश्चाताप करता है, वैसा तू मत कर । सन्मार्ग में प्रगति करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
भाष्य:- दुर्बल पुरुष, जिसकी शारीरिक शक्ति वृद्धावस्था अथवा रोग आदि के कारण क्षीण हो गई है, वह अपने मस्तक पर बोझ लाद कर अगर दुर्गम मार्ग का अवलकन करे तो, कंटक या रेत की अधिकता आदि के कारण उसे चलना अत्यन्त कठिन हो जाता है । उस समय वह उस मार्ग पर अग्रसर होने के लिए पश्चात्ताप करता है कि ' हाय ! न जाने क्या कुबुद्धि मुझे सूभी थी कि मैं इधर चल पड़ा, मैंने वृथा ही सुमार्ग का त्याग किया, मैं बड़ा अज्ञान हूँ, आदि ।
पश्चात्ताप करने पर भी वह अपने आप उत्पन्न की हुई व्यथा से बच नहीं सकता । उसे अपनी असावधानी का भोग भोगना ही पड़ता है । इतना ही नहीं, किन्तु पश्चात्ताप के द्वारा उस व्यथा में वह वृद्धि कर लेता है ।
इसी प्रकार जो साधु सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट मार्ग का त्याग करके अज्ञान या मोह के वश होकर अन्य विषय मार्ग ग्रहण करता है, उसे भी अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता है। किन्तु वाद का पश्चात्ताप कुछ काम नहीं आता । विषय मार्ग अर्थात् विषय - कपाय आदि का मार्ग स्वीकार करने से नरक तिर्यञ्च गति की विषय वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं. तब जीव अपने कृत कर्मों पर पछताता है, पर उस पछतावे से वह उनके फल-भोग से मुक्त नहीं हो सकता ।
विवेक की उपयोगिता यही है कि पहले से हिताहित का विचार करके किसी मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए। भगवान् कहते हैं कि - हे गौतम ! इस प्रकार विचार न करके जो विषय मार्ग की और चल पड़ते हैं उन्हें पश्चात्ताप करना पड़ता है । इसलिए ऐसा प्रयत्न करो जिससे पश्चात्ताप करने का अवसर ही न श्राने पावे । ऐसा करने में एक भी समय का प्रमाद न करो ।
विषय मार्ग में कथा की अधिकता सूचित करने के लिए सुत्रकार ने भारवाहक का 'निर्बल' विशेषण दिया है। दो बार 'पश्चात् ' पद का प्रयोग यह सूचित करता है