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ॐ नमः सिद्धेभ्य
निर्ग्रन्थ-प्रवचन
॥ ग्यारहवां अध्याय ॥
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भाषा-स्वरूप वर्णन
श्री भगवान् उवाच
मूलः - जा य सच्चा प्रवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा । जाय बुद्धेहिंडाइण्णा, न तं भासिज्ज पन्नवं ॥ १ ॥
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छाया:या व सत्याऽवक्तव्या, सत्यामृषा च या सृपा ।
या च बुद्धेरनाचीर्णा, न तां भाषेत् प्रज्ञावान् ॥ १ ॥
शब्दार्थ:- जो भाषा सत्य होने पर भी बोलने के अयोग्य हो, जो सत्यासत्य - मिश्र रूप- हो, जो मृषा अर्थात् असत्य हो और जो भाषा तीर्थंकरों द्वारा न बोली गई हो, उस भाषा को बुद्धिमान् पुरुष न बोले ।
भाज्य:- पिछले अध्याय में प्रमाद के परित्याग का उपदेश देने पश्चात् प्रकृत अध्याय में भाषा सम्बन्धी निरूपण किया जाता है, क्योंकि जिस प्रकार संयम की शुद्धि के लिए प्रमाद - परिहार की श्रावश्यकता है उसी प्रकार विशुद्ध भाषण की भी श्रावश्यकता है | जिसे भाषण सम्बन्धी विवेक नहीं होता वह असत्य भाषण करके सत्य महाव्रत का और श्रहिंसा महाव्रत का भंग कर डालता है । वह भाषा समिति का भी उल्लंघन करता है और वचन गुप्ति का भी खंडन करता है । तात्पर्य यह है कि भाषा-शुद्धि के बिना निर्दोष संयम की साधना संभव नहीं है । इसी कारण यहां भाषा सम्वन्धी विवेचन किया जाता है ।
भाषा, शब्द वर्गणा के पुगलों का परिणाम है, श्रतएव वह पौगलिक है । मीमांसक मतवाले शब्द को पुद्गल रूप न मान कर उसे श्राकाश का गुण मानते हैं । वे अपनी मान्यता का इस प्रकार समर्थन करते हैं
(१) शब्द पौगलिक नहीं है, क्योंकि उसके आधार में स्पर्श नहीं है । शब्द श्राकाश का गुण हैं, अतएव शब्द का श्राधार भी आकाश ही माना जा सकता है । श्राकाश स्पर्श से रहित हैं । जब आकाश ही स्पर्श से रहित है तब उसका गुण शब्द भी स्पर्श से रहित होना चाहिए और जिसमें स्पर्श नहीं है वह पुद्गल भी नहीं है ।
(२) पुद्गल रूपी होता है। रूपी होने से वह स्थूल भी है। स्थूल वस्तु, किसी अन्य सघन वस्तु में न प्रवेश कर सकती है और न उसमें से निकल सकती है। जैसे घट्टा रूपी पदार्थ है अतएव वह सघन दीवाल में न घुस सकता है, न निकल ही