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भाषा-स्वरूप वर्णन शंका-आपने बतलाया है कि शब्द एक समय में श्रेणी के अनुसार लोक के अन्तिम भाग तक पहुंच जाता है। वह दूसरे समय में विदिशा में भी जाता है और चार समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में, विदिशा में स्थित श्रोता भी मिश्र शब्द क्यों नहीं सुनता ?
समाधान-भाषा को लोकान्त तक पहुंचने में एक समय लग जाता है और दूसरे समय में वह भाषा, भाषा नहीं रहती। क्योंकि "भाष्यमाणैव भाषा, भाषासमयानन्तरं भाषाऽभाषा" ऐसा कहा गया है। अर्थात् भाषा जिस समय में बोली जा रही हो, उसी समय में वह भाषा कहलाती है। उस एक समय के पश्चात् भापा प्रभाषा हो जाती है। बोला हुश्रा शब्द दूसरे समय में श्रवण करने के योग्य नहीं रहता है।
श्रतएव विदिशा में जो शब्द सुन पढ़ता है वह द्वितीय प्रादि समयवती होने के कारण सूल शब्द नहीं है, क्योंकि द्वितीय समय में वह श्राव्य शक्ति से शून्य हो जाता है, उस मूल शब्द ने अन्य शब्द वर्गणा के पुद्गलों को भाषा रूप परिणत कर दिया है इसलिए वह वासित शब्द है और वही विदिशा में सुनाई देते हैं।
जल में पत्थर डालने से, जहां पत्थर गिरता है उसके चारों ओर एक लहर उत्पन्न होती है। वह लहर अन्य लहरों को उत्पन्न करती हुई जलाशय के अन्त तक बढ़ती चली जाती है। इसी तरह वक्ता द्वारा प्रयुक्त भाषा द्रव्य आगे बढ़ता हुना, आकाश में स्थित अन्यान्य भाषा योग्य द्रव्यों को भाषा रूप में परिणत करता हुश्रा लोक के अन्त तक जाता है। लोक के अन्त में पहुंच कर उसकी सुनाई देने की शक्ति समात हो जाती है, पर उससे अन्यान्य भाषा वर्गणा के मुद्दों में शब्द रूप परिणति उत्पन्न होती है और वे शब्द, मूल तथा बीच के शब्दों द्वारा अर्थात् मिश्र शब्दों द्वारा प्रेरित होकर गतिमान हो जाते हैं और विश्रेणियों की शोर अग्रसर होते हैं । इस प्रकार चार समय में समस्त लोकाकाश उन शब्दों द्वारा पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाता
जीव काय योग के द्वारा भाषा द्रव्य को ग्रहण करता है और वचन योग के द्वारा उसका त्याग करता है । ग्रहण और त्याग करने की यह क्रिया चाल रहती है। जीव कभी निरन्तर भाषा द्रव्य को ग्रहण करता है और निरन्तर भापा द्रव्य को त्याग करता रहता है । इससे यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिए कि जिन द्रव्यों को, जिस समय में ग्रहण किया जाता है, वह द्रव्य उली लमय त्याग दिये जाते हैं। किन्तु प्रथम समय में ग्रहण किये हुए भाषा द्रव्यों को द्वितीय समय में जीव त्याग करता है और द्वितीय समय में ग्रहण किये हुए द्रव्यों को तृतीय समय में त्यागता है।
औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर वाला जीव ही भाषा द्रव्य को ग्रहण करता और त्यागता है।
कोई-कोई. लोग ब्रह्म को शब्दात्मक स्वीकार करके, समस्त विश्व को शब्दामक स्वीकार करते हैं। उनके मत ले, संसार में, शब्द के अतिरिक्त घट पट आदि